अहाने के बहाने -- बुन्देली कहानी
अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3 |
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बुन्देली कहानी--हरिविष्णु अवस्थी अहाने के बहाने |
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जाड़न के दिना हते। ओई पै दो-तीन दिना पैलउँ अच्छी माउठ पर गई ती। फिर जाड़े परमेसुरे की पूछने। अपने कूड़ादेव बारे दुर्गेशजू वा कवता नँइँ सुनाउन लगत.... ‘अरे अनै जीमई पैतो धरीती... हओलो आगइ खबर-परो जो जाड़ो कोड़ी काड़ा सो भइया’ साँसउ ऐसइ ठंड हती ऊ दिना।
सरसुती की मताइ कन लगीं ‘काय! इतइ आँगन में घामें में गुड़ा चूलो न धर लंय! अटाई में घुसतन तो जाड़े के मारैं प्रान से कड़त। मइंनाक पैलाँ उरदा दरे ते जबई की ठरूली धरी। कओ तो इतइ हुन ठरूला सैंकें देत, सो खा के हारे चले जावो दिन भर खों सुस्तई होजे।’
ठरूलन को नाव सुनतईं मों में पानी भर आव। हमने कई ‘नेकी उर बूझ-बूझ उलात करो। ठरुलन के संग खों तनक आदो उर दो पोथीं लासन की डार कैं धनन की चटनी सोउ बाँट लियो। ठरुलन को असली मजा तो चटनी के संगइ आउत।’
उनने ज्योरा कसैंड़िया उठाई उर धुतिया कंदा पै धरकें चलन लगी। हमने कई ‘कै अबै तो ठरुलन की बातें हो रइँतीं, अब काँ खौ चल दईं।’ वे कन लगीं के कुआ पै सपर कैं अब्बे आउत। उतई सैं सद्द पानी भर ल्याय।
इते तो जोन बेराँ से ठरुलन को नाव सुनो तो ओइबेरा सै लार चुचावे लगी ती। हमने कई ‘तुमे रोटी नोइ बनावनें कै बा बिना सपरैं नइ बन सकत। तुम तो उलात करो, ठरुला बनाव, सो हम खा के हारे-खेते जाँय। आज पानी की अपनी ओसरी सोउ है। उलायते पौच जैं सो संजा नो समदुआबारों सबरो खेत ढरजै।’
उनने ज्योरा कसैड़िया एक तरफे धरी। गईं सो गुड़ा चूलो उठा लिआइं। चूलो परचा कैं गईं सो हात पाँव धो चूले के गेरां पानी को किनछा लगाव उर ठरुली माड़बे बैठ गईं। चूले में से झार कड़न लगी सोऊ पै करइया धरकै चिकनई डार दई उर करैया को ताव देखन लगी। सरसुती खों टेर कैं ऊंसें कई कै बिन्नू तुम ऊपर सिलोटा पै होकैं चटनी वाट लिआव। उर अपुन ठरुला बेलन लगीं। करैया में पानी के छींटा मारे, जान लई कै करैया हो गई सो ठरुला सिकबे डार दओ।
हम झट्ट उठे उर हात-पाँव धो कैं उतई खूँटा पै सैं बोरा उठा कै बिछा कैं बैठ गये। अब करइया तरफै टुक्क लगाँय बैठे के कबै टाठी आबे उर अपुन भोग लगावें। हमने कइ कै अब झेल न करो, उलायतीं परसो। बे कन लगी ‘तनक गम्म तो खाव। तनक खैरो तो हो जान दो। कच्चो तो नोइ खाने।’
उनने करइया में झारो डारके ठरुला ओइ पै धरो रन दओ, उर दूसरो ठरुला उठा के सिकवे डार दओ। जोनो झारे पै धरे ठरुला की चिकनइ निचुर गई सो उए उठा के ऊमे से तनक टोर कै पैलउ चूले में छिटकी डारी फिर माय तुलसी धरा उर बेदी की तरफे छिटकी डार कैं कुपरा में धर लओ।
हमने कई ‘ओ परमेसरी अब काय नोइ पर्स रई।’ बे कन लगीं ‘कित्ती उलात मचाँय। जानत हो कै पैली रोटी, लुचइ अछूते बारी बिन्नू की होत। तनक और गम्म खाव।’ का करते, ठरुलन की जाँगा गम्म खाँय तनक देर और बैठे रय।
जोनो दो तीन और सिक गये सो उनने टाठी में दो ठउआ ठरुला उर चटनीं पर्स कै टाठी सामने धर दई। मोड़ी सैं कन लगीं ‘बिन्नू हमाय हात सकरे है तो हम बासन नईं छी सकत। तुम घिनोची पै सैं गड़ई उठा कै दद्दा खों पानी भरकै दै जाव।’
इते जाने कबसैं जीभ लपर-लपर हो रई ती। जैसइ टाठी सामुने आइ सो तुरतइ भगवान खों भोग लगाव, उर डट गय खावे खों। अबे एकइ डेढ़ ठरुला खा पावतो कै इत्तइ में करनजू ककाजू ने पोर में होकै टेरो ‘काय हो भगोने हारे नँईं चलने? हम कब की तुमाइ बाट हेरै दुआरें बैठे ते। झेल होत देखकै हमने सोची उतइ चल कैं देखें का हो रओ।’ हमने कई ‘ककाजू अपुन को बिराजवो होय, मैं अब्बई आउत।’
हमाय मों सैं जा बात कड़तन देर नँईं भई कै वे कन लगीं ‘काय हो तुम कैसे आहो, ककाजू सै जा कतन नँईं बनी कै आव ककाजू अपुनइ दो ठरुला जैंलो। बे कौन साँसऊ आय जात। अरे मो तो छिओ जात कै नँईं।’ हमने हराँ के कई ‘तुम जानती नँईंयाँ बे अबे हाल आय जात।’ अकेले बे काय खों मानवे बारी हतीं। उनकी जबरठेली में मोय कने परी ‘ककाजू दो ठरुला अपुन खौं चल जाँय।’
हमें कतन झेल नँईं भई कै ककाजूं दँयँ दंदेरा आँगन में आ गय। उतइ पानी को बोंगना भरो धरो तो तो चट्ट हात-पाव धोय उर हमाय लिंगा आके कन लगे ‘किते बैठ जाँय?’ हमतो पैलउ सैं जानत ते। उर हमें ई पै और तामस आ गऔ कै जे बड़े-बूढ़े जा नइ जानत कै बहु-बिटियन बारे घर में खाँस-खकार कै घुसौ जात। सो ततोस में हमाय मौं सै कड़ गई ‘ई हत्यारी जीभ पै बैठ जाव जी सैं कै आइ।’
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अवस्थी चौराहा, किले का मैदान, टीकमगढ़ (म0प्र0) 472001