लालच कबहुँ न कीजिए, लालच विपदा-मूर -- बुन्देली लोककथा
अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3 |
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बुन्देली लोककथा--पं0 गुणसागर ‘सत्यार्थी’ लालच कबहुँ न कीजिए, लालच विपदा-मूर |
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कैबेखों लोभ और लालच इकई बात होत, अकेलें ऐसी बात है नैंय्याँ। कन लगत कै लोभी कौ धन लाबर खाय। इतेकई नइँ, लोभी की चमड़ी जाय अकेलें दमड़ी नइँ जा सकत। ईसें लोभ और लालच एक नइँ हो सकत। लोभी होबौ तौ सुभाव होत है, लालच तौ कभऊँअइ जी चाँय खों आ जात है, अच्छे-अच्छे लों बखत बेराँ पै लालच की चीकनी फिसलन पै रिपट परत हैं। सो एक लोभी सेठ जी हते, भौतई चतुर और सियाने। अपनों स्वारथ पूरौ करबे के लानें जी चाँय खों गढ़ा में ढकेल दैबै उनके लाजें सहज बात हती। बस उनकौ अपनों भलौ होंय चइये, दुनियाँ से उनें का लैंने-दैनें? चमड़ी जाय अकेले दमड़ी नइँ जाय की कानत के सेठ जी जियत सबूत हते। पइसा के लाजें प्रानन की बाजी लगा देत ते। भोर भई और बंजी खों कइ जावें, दिन डूबे लों बंजी करकें लौटत ते। कभँऊँ-कभँऊँ तौ अँधयारौलों हो जात तौ। ऊँट-घोड़ा तौ दूर, ना कछू एक साइकिल तक उननें नइँ लइ, जाँ जाँय गधा से लदे निगतई जावें। पूरौ कौ पूरौ माल बेंचबे के बादइ घरै लौटतते, जिदिनाँ पइसा-टका अच्छे आ जाँय सौ सोने की मुहरें बिसाकें फैंटा में अपनी कम्मर में कसें दौरत चले आवें।
ऐसेंइँ ऐसें एक दिना का भऔ, कै लोभी सेठजी की ऊ दिना गाढ़ी कमाई हो गई ती, सो उनने सोने की मुहरें बिसालईं। डाँग में से घर की गैल पकर लइ और दौरन लगे। इतेक में का भऔ, कै डाँग में एक रींछ ने सेठ जी खों देखौ ओर बौ इनपै टूट परौ। सेठजी ऐंनइँ दौरे, आँगे सेठ पीछें रींछ, काँलों भगते? एक बड़ौ सौ मउआ का पुरानों बिरछा देख कें सेठजी ऊ बिरछा खों घेर कें चक्कर लगा कें दौरन लगे। रींछ अपने दो गोड़िन पै ठाँडों होकें मउआ के लिंगा जा पोंचौ और आँगे के दोई गोड़े मउआ के दोई बगलै पसार कें नाँय-माँय होन लगौ कै अब तुम काँ जात? तुम जी बगलै जै हौ हम हाथ मारकें पटकई दै हैं....। सेठजी सोई छनकीले हते, उननें लपक कें रींछ के दोई गोड़े पकर लये और अपनी तरपै तानकें चकरघिन्नी करन लगे। बीच में मउआ हतौ सो रींछ सेठजी कौ कछू नइँ बिगार पा रऔ तो। दोई जने मठा सौ भाँवे लगे। एई खेंचातानी में सेठजी की कम्मर कौ फैंटा ढिलया गऔ और सबरीं मोहरें बगर गईं। अब सेठजी मनईं मनें सोच में पर गए कैं राँम। अब हम का करें? मोहरें छोड़कें भगबे कौ मन नइँ भऔ। इतेक में गाँव कौ एक भोरौ-भारौ जुवाँन पट्टा उतै सें कितउँ जात दिखानों। सेठजी नें जोर-जोर से ‘हूँ और, हूँ और’ कैबो सुरू कर दऔ। सुनकें बौ आदमी लिंगा आ गऔ, सेठजी से बोलौं ‘‘काय भैया, तुम जौ का तमासौ कर रहे हौ? बिचारे रींछ खों काय परेशान कर रये?’’ सेठ जी नें कई ‘‘तोय जे सोनें की मोहरें नइँ दिखा रइँ? जे मोहरें रींछ के पेट से उगलवाई हैं हमनें। रींछ के पेट में सोनें की मोहरन कौ खजानौ होत, जा बात तुमें पतौ है कै नईं? अबै तो हमें भौत मोहरें उगलवाउनें हैं।’’ बौ आदमी तो भौतई ईमानदार, मेहनत की कमाई में संतोष करबे बारौ हतौ। अकेले सोने की चमचमाती मोहरन की चकाचौंध में ऊकौ सत्य डिगन लगौ। बा के अन्तस में लालच पैदाँ हो गऔ। बौ बोलौ ‘‘काय भइया, रींछ से मोहरें सब कोऊ उगलवा सकत?’’ सेठ जी ने कई कै देख नइँ रये, हमने इतनी बिलात मोहरें उगलवाई कै नइँ? ऊ आदमी नें नोंनें मुड़ी मटका कें कई ‘‘सो तौ हम देखई रये हैं। तुमने तौ बिलात मोहरें पा लइँ हैं, अब गम्म खाऔ, दो-चार मोहरें हमइँ उगलवा लेवें ऐसौ नइँ हो सकत है का?’’ सेठजी तो जौ चाऊतइ हते कै कोऊ मूरख मिलै तो ऊखों हम रींछ के गोड़े पकरा देवे। सेठजी बोले ‘‘हमाई मनसा तौ अबै पूरी नइँ भई, अकेलें तुमाई भलमनसात देख कें सोचत हैं कै हम काऊ और दिनाँ रींछ पकरलें हैं, हमाऔ तौ रोजीना कौ जौई काम है। आज तुमइँ का कैहौ कै कोऊ भलौ आदमी मिलौ तो। तौ आऔ मजे से रींछ के दोई गोड़े कसकें पकर लो।’’ फिर का हती मेहनत करकें खाबे बारे सीधे-साधे आदमी ने लालच में परकें रींछ के गोड़े पकरइतौ लये। सेठजी बोले ‘‘भैया जू, अब तुम अपने रींछ खों ऊ बगलै घुमालो, जी सें हम अपनी मोहरें उठा लेवें, फिर तुम अपनी मोहरें उगलवाऊत रइयो।’’ सेठजी नें अपनी सबरीं मोहरें जाँ की ताँ बटोरीं और घर की गैल पकरकें नों दो ग्यारा हो गए। बौ लालची बिचारौ जाँ कौ ताँ अपने प्रान जोखम में डार कें रींछ के गोड़े पकरें ‘हूँ और, हूँ और’ कत रै गऔ। न बौ लालच में परतौ ना प्रानन पै ऐसी आफत बीदती। जई सें कई गई है कै-
‘लालच कबहुँ न कीजिये, लालच विपदा मूर,
जो लालच खों जीत लै, सोई साँचो शूर।’