मयंक जी के गीतों में राष्ट्रीयता -- आलेख
अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3 |
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आलेख--डॉ0 सुरेन्द्र प्रताप सिंह ‘अमित’ मयंक जी के गीतों में राष्ट्रीयता |
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मयंक जी के तमाम गीतों में राष्ट्रीय चेतना के स्वर निकले हैं। आजादी के पहले वतन में सांस्कृतिक एकता तो मौजूद थी परन्तु वतन और वतनपरस्ती जैसी कोई बात न थी। अंग्रेजी दासता अपनी हकीकत बयान कर रही थी। आजादी का शंखनाद बज चुका था। देश में जाति-भाषा से परे चारों तरफ वतन परस्ती का आलम था। पराधीनता से मुक्ति, नवीन चेतना को जगाने का प्रयास, आधुनिक नवनिर्माण के लिए मूल्यों पर विचार, आजादी के बाद का जनाक्रोश-इन्हीं आधारों पर बाबूजी के राष्ट्रगीत टिके हुए हैं।
युगों-युगों के बाद आजादी मिली। नए भारत की सबसे बड़ी चुनौती थी सामाजिक विषमता। इस विषमता के प्रति वे सचेत करते हुए कहते हैं-
‘‘उतरा है आजाद सबेरा, महलों की मीनार पर
अभी उसे ले जाना है, हर घर की हर दीवार पर
अभी देश में न्याय नीति भी, समर्थ का हर रहे समर्थन
जनहित की छाती पर होता, अधिकारों का ही अभिनन्दन
अभी भूमि पर नहीं संकुचित, हुई विषमता की सीमाएँ
पदरज को छू सकीं न अब तक, रंगमहल की दीप शिखाएँ
अभी देश में श्रम का शोषण, पूंजी का उत्पात शेष है’’
तमाम मेहनतकश इंसानों ने वतन के नवनिर्माण का संकल्प लिया। तमाम श्रम के जरिये नए भारत ने करवट बदली। लेकिन इतने पर भी वैसा नहीं हुआ जैसा अवाम ने सोचा था। देश की आर्थिक दुर्दशा पर इसके सिवा वे भला क्या कहते-
‘‘यह खेतों का देश जिसे अपने खेतों पर नाज है
आज यहाँ का बच्चा बच्चा दानों का मोहताज है
अन्न विदेशी मन्न विदेशी कैसा देशी राज्य है
पतझर द्वारे हाथ पसारे, खड़ा आज ऋतुराज है
x x x
कोई जीता छालें खाकर, कोई खाकर पत्तियाँ
भारत माँ के लाल छिपाये, अपनी-अपनी खत्तियाँ
बुझते गये अगर कुलदीपक, बढ़ती गई विपत्तियाँ
क्या होगी फिर गाँव-गाँव जाकर बिजली की बत्तियाँ।’’
कवि निराश नहीं है क्योंकि भारत का एक नाम आस भी है। उसकी अपनी कला-चिन्तन-देशना है जो जागीर के रूप में हमें मिली है। तनिक मयंक जी के भारत से तो मिला जाये -
‘‘हैं पचपन करोड़ फौलादी टुकड़े इस जंजीर में,
एक छोर लंका को छूता, दूजा है कश्मीर में,
दर्शन, चिन्तन, कला, सभ्यता, सभी मिले जागीर में,
हैं स्वर्णिम रेखाएँ अपनी दुनिया की तस्वीर में’’
राष्ट्र निर्माण के भावी संकल्प के साथ आत्मविश्वास और दृढ़ता है। विकास की कड़ी आखिर तक पहुँचेगी, यही जन-जन का विश्वास बाबू जी के गीत के बोल बन जाते हैं-
‘‘हर अंधेरी कोठरी में हम दिया जलायेंगे।
हर सिसकती झोपड़ी को हम महल बनाएँगे।’’
बाबू जी के लिए पीड़ा सत्यम् है, प्रेम शिवम् है और गीत सुन्दरम् है। उनका मानस क्षेत्र तीर्थराज प्रयाग के समान है तभी तो वे धरती पर एक नया मन्दिर और उसमें एक नया भगवान देखना चाहते हैं-
‘‘उठो देश के नए उजालो, अंधकार का भार संभालो।
चिंगारी को चंदन कर दो, आँसू को मुस्कान बनाओ।।
जहाँ आरती जलता दिल हो, आँसू पावन गंगाजल हो।
एक नया मन्दिर धरती पर एक नया भगवान बनाओ।।’’
देश आजाद हुआ। युग पुरुष महात्मा गाँधी को सारे राष्ट्र की तरफ से कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे हैं बाबू जी-
‘‘भारत भाग्य विधाता गाँधी! तुमको मेरा प्रणाम
जहाँ न सूर्य अस्त होता था, तुमने कर दी शाम।’’
कोई भी राष्ट्र-समाज अपने आत्मोत्कर्ष के लिए सतत् बलिदान माँगता है, तभी वे अपने एक गीत में आवाहन करते है-
‘‘रक्त दीप से करो स्वतंत्रता की आरती’’ या फिर
‘‘होता है चित्र पूरा जो खून से बनता है’’
नई नवेली दुल्हन सी आजादी को दूसरों के आगे भीख माँगते देख उनका दिल रो पड़ता है। ऐसे देश की तो कल्पना नहीं की गई थी। देश के प्रति पीड़ा को वे इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
‘‘यह कैसी आजादी देखी, सभी तरफ बरबादी देखी।
अपनी आँखों से अधनंगी, भिखमंगी शहजादी देखी।
जिसके अधरों में आहें हैं, दर्द रचा मुस्कान में।
अब तो कुछ ऐसा लगता है अपने हिन्दुस्तान में।’’
वतन को आजादी मिली त्याग और बलिदान की कीमत पर। बलिदान आज इतिहास की गवाही है। देश की तरुणाई को कवि अपने इस गीत से जगा रहा है-
‘‘वह बिस्मिल आजाद जिन्होंने स्वतन्त्रता की इच्छा में,
मरकर अजर अमरता माँगी मुक्ति न माँगी भिक्षा में,
लाखों लाल हुए न्योछावर, इसी स्वराज्य परीक्षा में,
जलियाँ में कितनी कलियाँ मुरझाई, इसी प्रतीक्षा में।’’
लेकिन इस देश को क्या कहें। शायद देशवासी इस देश को ठीक से सँभाल न सके। अब भी दिल्ली दूर है, जैसे गीत से राष्ट्रीय लोकचेतना को जगाने का प्रयास मयंक जी कुछ इन शब्दों में करते हैं-
‘‘उतरा है आजाद सबेरा, महलों की मीनार पर।
अभी उसे ले जाना है, हर घर की हर दीवार पर।
जहाँ, अँधेरा, सूनापन है, जहाँ आँसुओं की तड़पन है।
जहाँ अभी रोता सावन है, मधुर बसन्त बहार पर।।
जहाँ अभी कलियों का बचपन, हँसने से मजबूर है।
चलो चलो रे! बढ़े चलो रे! अब भी दिल्ली दूर है।’’
कोई भी देश नया-नया आजाद हुआ हो तो उसको दोहरा खतरा होता है-अन्दर का और बाहर का। बाहर का दुश्मन तो दिखाई पड़ता है परन्तु अन्दर के दुश्मन की नीयत का कैसे पता चले? दो टूक बात कहना सत्य और साहस का काम है जिसे मयंक जी ने बखूबी निभाया-
‘‘इस घर को डर नहीं है बाहर की आग से।
डर है तो हमको डर है घर के चिराग से।।’’
देश आजाद तो हुआ, कलियाँ प्रस्फुटित हुईं पक्षी चहचहाये, परन्तु आदमी की बाबत क्या कहें? समाज में हर तरफ सामाजिक विसंगति विषबेल-सी फैली नजर आ रही है-
‘‘कहीं है कलियों का नर्तन, कहीं है आँसू का उपवन।
किसी के नयनों में मधुवन, किसी के नयनों में सावन।
जहाँ मदिरा के प्याले वहीं नाचती चाँदी की झनकार।
पसीने की धारा को मिला, यहाँ केवल आँसू उपकार।।’’
वहीं मयंक जी चाहते हैं कि इस संसार की वेदना मिट जाए, वह सर्वथा व्यथा से मुक्त हो जाये। उनकी यही चाहत गीत की शक्ल में कुछ यूँ ढलती है-
‘‘घाव मिटाना है दुनिया की इस घायल तस्वीर से,
अब काँटों की राह हटाना है दिल की जागीर से,
नया राग है नई कहानी, नयी आग है नई जवानी,
बदलेंगे तकदीर पुरानी आज नयी तदवीर से।’’
गीतकार का यह भी धर्म है कि वह अपने गीतों में समाधान भी दे। नए सिरे से वे नमाज-ध्यान-पूजा को परिभाषित करते हुए कितनी बड़ी बात कहते हैं, संभवतः मानवता के लिए सबसे ऊँची शानदार बात, वो भी कुछ इस तरीके से-
‘‘निश्छल रहना ही नमाज है, सच्चाई ही ध्यान है
जो पूजा स्वीकार उसे है, वह केवल ईमान है
हर दिल का हर जख़्म करबला काशी तीर्थ समान है
आँसू में यदि डूब सको, समझो वह गंगा स्नान है।’’
उन्होंने अलग से कुछ नहीं कहा, जो कुछ कहा केवल अपने गीतों के माध्यम से कहा। राजनीति से लेकर समाज तक में जो कुछ भी उन्हें दिखाई देता है विसंगतिपूर्ण, उसे ही वे अपनी मोहक सर्जना में ढाल देते हैं। न किसी को कोई उपदेश न कहीं कोई देशना बस चुपचाप अपने दिल की लगी खुद को सुनाते जाते हैं। किसी और को वे क्या सुनाएँ सिवाय अपने। सिर्फ इंसानियत की बात मानवता की पुकार।
आपको उन गीतों की ओर भी ले चलें जो बाबू जी ने तब लिखे जब देश के ऊपर बाहरी आक्रमण हुए। बांग्लादेश के युद्ध के समय एक तरफ तो एक नये राष्ट्र का जन्म हो रहा था तो दूसरी तरफ तमाम वीर बाँकुरे राष्ट्र के लिए हँसकर मृत्यु का वरण कर रहे थे। ऐसे ही वीर शहीदों-अमर पुत्रों की स्मृति में इतना सुन्दर श्रद्धांजलि गीत निकला जो न सिर्फ आकाशवाणी के जरिये पूरे देश ने सुना बल्कि आज तक लोगों के गले का सुन्दर हार बना हुआ है; कुछ पंक्तियाँ-
‘‘फूलों के हार उनको जो साथ विजय लाये।
आँसू के फूल उनको जो लौटकर न आये।।
ओ हिन्द के सिपाही है शान तेरी शाही,
इतिहास के पन्नों को दी तूने नई स्याही,
तूने लहू से सींचा इस देश का बगीचा,
अपने लहू से भरके तूने दिये जलाये।
आँसू के फूल उनको जो लौटकर न आये।।’’
मयंक जी को इस कविता पर प्रशासनिक कोप का भाजन भी होना पड़ा, जिसकी चर्चा कभी बाद में। बाबूजी की रचनाओं में राष्ट्रीयता की भावना के पीछे उनका राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रगौरव था। इसे उन्होंने पूरी तन्मयता से सबके सामने रखा है। निस्संदेह वे बुन्देलखण्ड के ही नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष के गौरव हैं।
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अध्यक्ष-मनोविज्ञान विभाग, राजकीय महिला महाविद्यालय, हमीरपुर उ0प्र0