बुन्देलखण्ड के स्थान-नामों में लोक-संस्कृति -- आलेख

अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3

आलेख--डॉ0 कामिनी

बुन्देलखण्ड के स्थान-नामों में लोक संस्कृति

पाणिनि कालीन भारतवर्षके अन्तर्गत स्थान-नामों का सम्बन्ध भाषा और व्याकरण के धरातल पर अविभाज्य माना है। अष्टाध्यायी के सूत्र स्थान-नामों में धर्म, समाज, प्रकृति राजनीति के साथ व्यक्ति को नामकरण का आधार मानते हैं। डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय संस्कृति को सार्वजनीन संपदा मानते हैं। संस्कृति की भाँति लोक संस्कृति भी सहानुभूति का वातावरण निर्मित करती है। व्यक्तियों को समीप लाती है और समाज को समता की भावना प्रदान करती है। बुन्देलखण्ड की लोक-संस्कृति को ब्रज ने राधा और कृष्ण की अटूट आस्था दी। यह अटूट आस्था सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड के स्थान नामों में द्वारकाधीश, केशव नंदनंदन, बिहारीजू, जुगल किशोर और कन्हैया के साथ राधा, किसोरीजू, और बृषभान दुलारी के रूप में समावेशित है। अवध ने स्थान-नामों को सीताराममय बना दिया। शक्ति उपासना को प्रमाणित करने वाली चौरासियाँ बुन्देलखण्ड में हैं। ग्राम्य देवता स्थान-नामों को आधार देते हें। इस भू-भाग के स्थान-नाम यज्ञ और आहुति, अहिंसा और असहयोग तथा व्रत और उत्सवों के साथ सम्मिलित हैं।



लोक संस्कृति, लोक जीवन की आस्थाओं का प्रतिबिम्ब है। स्थान-नाम समाजशास्त्र से सीधा-सीधा सम्बन्ध रखते हैं। उसी से डॉ0 कैलाशचन्द्र भाटिया ने भाषा भूगोल के अन्तर्गत स्थानवाची शब्द संपदा को जीवित शब्द संपदा कहा है। लोक जीवन के अन्तर्गत परिवार, वर्ण, जाति, खानपान, घर-गृहस्थी, व्यवसाय और पद सम्मिलित हैं। इन स्तरों को प्रमाणित करने वाले स्थान-नाम जबलपुर के पिपरिया बनिया खेड़ा, और सागर के मुड़िया गुसांई की भाँति हैं। जाति और गोत्र बुन्देलखण्ड के स्थान-नामों में सर्वत्र उपलब्ध हैं। पद और उपाधियों को आधार मानकर रखे गये स्थान-नामों में बोहरे, महाजन, महंत, अमीन, खजांची, हकीम, पचौरी, चौधरी, साहनी और दीवान पद विद्यमान हैं।



नानीखेड़ा (रायसेन), मामा का बाजार (ग्वालियर), चाचा खेड़ा (भोपाल), सास बहू (नरसिंहपुर), बेटे का खुड़ौ (पन्ना), सात भाई की गोठ (ग्वालियर), चेरीताल (जबलपुर) और लौंडिया टेला (छिंदवाड़ा) स्थानवाची नाम लोक जीवन के पारिवारिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं। होशंगाबाद का सहेली, मंडला का गुरुटोला और सीहोर का यारनगर परिवार की सीमा पार कर जाते हैं। लहुआपुरा, नोंनपुर, चौपरा और कुरकुटा स्थान-नाम लोक जीवन के खानपान पर आधारित हैं। घर गृहस्थी के आधार पर ग्वालियर में रई, जालौन में कुटीला, पन्ना में पलका, रायसेन में संदूक, बिदिशा में पोतला, नरसिंहपुर में खुरपा, भिंड में दौनियां, होशंगाबाद में पथरौटा स्थान नाम हैं। घिनौंची, जलघरा, मढ़ा, मझपौरिया, बंडा, खौं, उसारौ, टेकरी और छान, आवास निर्माण की विधियों को प्रमाणित करते हैं। लोक जीवन का प्राण है। इसी से खूबीदादा का मन्दिर (शिवपुरी), जमीन प्रताप सिंह (पन्ना), मस्तराम बाबा की टेकरी (भिण्ड), नाका चन्द्रवदनी (ग्वालियर), सुधा सागर (टीकमगढ़) और मदारी कौ ताल (दतिया) में हैं। लोक जीवन मेलजोल, भैयाबंदी और सहयोग की भावना को जगाता है। जीवन के विविधपक्षों को आकर्षक और बहुवर्णी बनाता है। बुन्देलखण्ड के स्थान नाम बैर, प्रीति, क्रोध, घृणा और त्याग को दर्शाकर विभिन्न मनोदशाओं का क्रमिक ब्यौरा सुरक्षित रखते हैं। जालौन का लाढ़पुर, सीहोर का खुशामदा, टीकमगढ़ का मर्दानपुर और पन्ना का दरेरा मनोदशाओं को दर्शाने में समर्थ हैं। बुन्देलखण्ड के लोक जीवन में आस्था और विश्वास सदैव से सम्मिलित रहे हैं। छतरपुर का दादूताल और टीकमगढ़ की सिद्धटौरिया स्थान नाम किसी न किसी आस्था के परिणाम हैं। अन्तर की सद्वृत्तियाँ भी स्थान-नामों के साथ सम्मिलित होकर लोक जीवन की आस्था को सुदृढ़ बनाती हैं। बुन्देलखण्ड की संस्कृति समन्वयमूलक है, जो स्थान-नामों के धरातल पर एकता को पुष्ट करती है। भुमियाँ, बाबाकपूर, दूलादेव, नारसिंग, देवधनी, हीरामन, कुंअरसाब, घटौरिया, परीतबाबा, दानेबाबा, गोंड़बाबा, नटबाबा, पठानबाबा, बरखुरदार, सैय्यदवली और जिंदपीर स्थानवाची नामों के साथ घुलमिलकर लोक संस्कृति को विशाल धरातल प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक खाई को पाटकर हिन्दू और मुसलमानों की आस्थाओं को एकाकार कर देते हैं।



बुन्देलखण्ड में देवरभाभी का रिश्ता जितना पवित्र है, उतना ही पारिवारिक गठन के लिए आवश्यक है। हरदौल ने अपने प्राणोत्सर्ग के द्वारा बुन्देलखण्ड के गाँव-गाँव की भाभियों का हृदय सदियों के लिए भावपूर्ण बना दिया है। हरदौल सनातन देवर बन गये हैं। परिवार के हर मांगलिक अवसर पर हरदौल को आग्रहपूर्वक न्यौताजाता है। इसी से भिण्ड मुरैना से लेकर बैतूल, छिंदवाड़ा तक हरदौल स्थानवाची नामों का आधार है। बुन्देलखण्ड की लोकसंस्कृति के प्राण हरदौल चौराहा, गुना की हरदौल खेड़ी, दतिया के हरदौल मन्दिर, ओरछा का हरदौल का चौंतरा, बाँदा की हरदौली, नरसिंहपुर के हरदौल मठ और छिंदवाड़ा के हरदौल ढाना में समान रूप से सम्मिलित हैं। छतरपुर के हरसंकरी स्थान-नामों में लोक संस्कृति वट, पीपल और नीम को एक स्थान पर देखकर श्रद्धा से पुलक उठती है।



निष्कर्ष रूप में बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति समता का वातावरण निर्मित करती है। इन स्थान-नामों में सम्पन्नता के साथ विपन्नता और बैर के साथ प्रीति भी है। मेले, व्रत, उत्सव और पारायण विधियाँ स्थान-नामों में सम्मिलित हैं तथा लोक आस्था के आधार ग्राम्य देवता सम्मिलित हैं। बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति के सुदृढ़ आधारों में हरदौल जीवंत आधार हैं। स्थान-नामों से सम्बन्धित लोकोक्तियाँ बुन्देलखण्ड के लोक जीवन की अंतरंग झाँकी सहेजे हुए हैं। बुन्देलखण्ड के स्थान-नामों में समावेशित लोक संस्कृति अनेकता में एकता सत्यापित करती है।



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अध्यक्ष-हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, सेंवढ़ा म0प्र0

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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