रानी की तलवार -- कविता

अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3

बुन्देली कविता--अजीत श्रीवास्तव

रानी की तलवार


खण्ड-1


परी थीं म्यान में सोईं, जगायें सें उठीं।


छोर के अंधयाई बे, चमचमा के उठीं।


हती रानी की तलवार, शान से उठीं।


कड़तई बे बाहरे बे सूदे, असमान में उठीं।



गाज सी उठी चमक की, बिजली गिर परी।


चली जौन ओर से, रखत वर्षात हो परी।


इतायें मिटाकें चली, उतायें खों चल परी।


हांथ पांव गले या, दुश्मन के मूढ़ में परी।



सपर सपर के खून से, सराबोर बै चलीं।


धरती पै बै चलीं और आसमान में चलीं।


ऊपर खों बे चलीं और नीचे खौ बे चलीं।


काटबे और चीरबे खों, आरपार खों चलीं।



आओ अकड़ कैं जो, सो भूमी पे गिर गऔ।


आंगे जौ आओ कोऊ, मुर्दा सौ लटक गऔ।


सूदे जो आये लरबे खों, उल्टौ पलट गऔ।


छुट्टा जो घलो हांथ सो, भुट्टा सौ कट गऔ।



तलवार सें टकराई, भये तलवार के टूंकाँ।


बख्तर पै जा बैठी सो, भये सीने के टूंकाँ।


रोकन चाहो जीने उये, करदये टूंकाँ-टूंकाँ।


साबुत आओ तौ सामने, भये तुरतई दो टूंकाँ।



कौनऊँ लौटो नइयां, ऊसैं घाट उतरकें।


नाव के बिना गये सबरे पार उतरकें।


नदिया सी बहा दईती सबरवों कतर कें।


लाल भई धरती सब खून सैं रंग कें।



उछली, उछल कें चलीं, चलकें फिर चलीं।


नशा है जो अजादी कौ, बताकै कढ़ चलीं।


आकै बजी जितै बा, बे आवाज सी चलीं।


जीपै गिरपरी बा, फिर झट उठ चलीं।



बैठी सो दूसरन खों, बैठाती भईं चलीं।


झूली सो दूसरन खो, झुलाती भईं चलीं।


जगी भुमानी दुश्मन को, सुलाती हुईं चलीं।


कौनऊ हतो सोय से, जगाती भईं चली।



हवा खों जो काटो ऊने, भई सन्न की आवाज।


जौ तरवार तोड़ी कोनऊँ, भई झन्न की आवाज।


खुपरिया सें टकराई, भई खन्न की आवाज।


जो नागिन सी पिड़ गई, भई भन्न की आवाज।



सर सें घुसी सो जाकें, गरे सें कड़ गईं।


उतरी जो गरे सें सो, छाती तक फट गईं।


सूदी चली कभऊँ तो, तिरछी हो कड़ र्गइं।


ठैरी एक छिन खौं सो, फौहार सी गिर गईं।



दावं पै गिरी तरवार, सो टोपी फट गई।


सर पै पड़ी जोर सें सो, शकल मिट गई।


भमी जो तरवार सो, सुदर्शन चक्र बन गई।


महाकाली कौ रूप लैंके, तांडव सौ कर गई।



गरम गरम खून से सपरती भईं चलीं।


रानी पनी तरवार खों, नचाती भईं चलीं।


रानी की हती तरवार सो, अमर हो चलीं।


तरवार की झंकार से, मृत्युगान गा चलीं।



खण्ड-दो


इशारे पै चलत घोरा, किलौ नक गओ।


सामने परो गढ़ा जो, कुलाँच लै गओ।


धरके खुरी लाशन पै, तिरछौ कड़ गओ।


दिखानो हतो इतै बौ, कुजानै कितै गओ।



इक छन मैं पैदलन पै, बौ जमदूत बन गओ।


दूजे छन घुड़सवार खों, कालदूत बन गओ।


वार भये दुश्मन के सो, इक दीवार बन गओ।


घिरो लगत जबई बौ, सो ऊ-पार तन गओ।



दिखानों हतो कौनऊँ खों, हाथी की सूंड़ पै।


देखौ तबईं किसी ने, घोरन के झुंड पै।


देखो कौनऊँ नै ऊखौ, नवत रुंड मुंड पै।


दिखो किसी खो झपटत, चीता सौ झुंड पै।



काम नहीं है रुंकबे कौ, बढ़तई ही गऔ।


इतिहास पनी टॉप सें, गढ़तई ही गऔ।


आजादी कौ मंतर सौ, पढ़तई ही गऔ।


रन में हो कुरबान, अमरताई पा गऔ।



खण्ड-तीन


कोमल नाजुक नइयां, बुन्देलखण्ड की शेरनी।


करेजे अंग्रेजन के, झनझनावें खों बनी।


घोरे से कढ़ चलीं वे रखत सै सनी।


तूफान सी चलीं रानी तरवार की धनी।



चपल-चपला तरवार वे लहराती भईं चलीं।


शत्रु जो आओ सामने, सो ऊसें भिड़ चलीं।


गैंद सी खेल मूड़ खों, वे उतै सें कड़ चलीं।


दिलाबे आजादी खों, कमर कसके कड़ चलीं।



सामूं सें कोनऊँ वार, दुश्मन ना कर सकौ।


पाछूं से कोनऊ कायर, खड्ग उठा सकौ।


दो भाग सिर के, पै कौनऊ ना छू सकौ।


सोने से पैलें रानी खों, कोनऊ ना तक सकौ।



रूप दुर्गा सौ प्रचंड, रिपुअन खों काटती।


सिंहनी लगै कौऊ खौं, या रणचण्डी झांकती।


इतिहास लिख चली बे, मृत्युगान गुंजाती।


नारी नई कमजोर इतै, ऐसौ सबक सिखाती।



शहीदन के खून सें, जा माटी है सनी।


रानी तुमाई बलि कौ जौ देश है रिनी।


सोने के अक्षरन सें, लिखी जा है कहानी।


नारी होकें आप खों, सब कैहें मर्दानी।


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राजीव सदन

नायक मुहल्ला, टीकमगढ़-472001 (0प्र0)

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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