बेटा को मताई द्वारा लऔ भऔ इन्टरव्यू -- साक्षात्कार
अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3 |
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आमनू-सामनू--दिनेश चन्द्र दुबे बेटा को मताई द्वारा लऔ भऔ इन्टरव्यू |
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‘अच्छा तुमई बताओ। जा घर में तुम सात भैया एक बैन हो। आठऊँ जनन में तुमई काये अकेले लिखत? पढ़े लिखे तो सब तुमसै ज्यादई हैं...... और और सबसे गधा तौ पढ़वे में तुमई हते। याद है सुरेशा कैसौ मारततौ तोय कभऊँ कभऊँ, जब स्कूल खौं देर हो रई होत ती और तुम बार औंछवे में देर करत रतते। पटिया पारवे मैं लगौ, उतै चाँय स्कूल की घंटी बज जाये तौ मास्टर क्लासई में न घुसन देय। भैंड़ा बैसई सबसें बुरऔ लगत देखन में लेकिन...।
हमें ठीक से याद परतीं सब बातें साठ साल हो गये तौ भी। सब भाई बैनन में, सबसे ज्यादा खराब शकल सूरत हमाई अई हती। छुटपन से लैंके ज्वानीं की देरी पै पाँव रखत तक हम अक्सर सोचतते कै अम्मा-दादा ने हमाये संगै दुभाती करी। भाई साब कों देखौ जैसे करन दीवान होय बिलकुल। जिज्जी ऐसे लगती जैसे गंगा जमुना में बैजन्ती माला लगतती। और एक हम हैं, तौन पै एक आँख भैड़ी। ब्याव भओ तौ मड़वा के नीचे पैली बेर देखकै बौ बाद में बताईती कै...
अम्मा अपने सबसे खराब मौड़ा खौं, सब मौंड़ी मोंड़न में सबसे ज्यादा नाव कमावे बारौ और सबसे ज्यादा बड़े और इज्जतदार नौकरी में पौचने पे, वे जब भी मौका मिलततौ अजीब-अजीब सवाल करकै, अजीब चक्कर में डार देततीं। उनकी बेई यादें, आज तक उनै आड़ती और चाँये न चाँये, कऊँ न कऊँ उनकौ जिकिर कछू लिखवे, वे बैठे, वे जैसे उनके सामने आ बैठाती। पतरी दुबरी, गोरी चिट्टी हमेशा कानन में सोने की झुमकियां और गले में कुलदेवी की तबिजियाँ डारे, साधारण धोती में केवल मौं दिखाने बारी अम्मा यानि कै श्रीमती मिथलेश पत्नि भगवानदास, डिप्टी साब, घोड़ा पै बैठकें गाँवन गाँवन, दौरा करवे बारे। एक बेरे उनकी लिखी चिट्ठी सबसे छोटे हरीशा के हातै लग गई ती। डाक्टर भाई साब यानी कि कसरती शरीर बारे करन दीवान रमेश भाई, के पास जब बे मुरैना हतीं, तब उनने दतिया दादाय लिखी थी ‘प्रिय प्राणनाथ...इहाँ सब ठीक है। भैय्या अस्पताल जा रये टैम पे। दारू केवल सुवै शाम लेत....पर तुमार चिंता खाँय रत। जाने टैम पै कछू खावे मिलत कै नई। खुरमा बना के रखियायते। खतम हो गये हूँ और बनवा लियो बाई से। कामवारी से कै दियो के हम धोती दें आंके इनाम में....।’ पर छोटो भइया हरीश केवल प्रिय प्राणनाथ शब्द पै जोर देकै ठिल ठिलात भऔ हम सबके सामने अम्माय चिढाउत तौ और वे...वे उसे पछियाती अरे नासमिटे कोऊ की चिट्ठी पड़ी जात? बहू आ जान दे तब पता चल कै....।
आँख भर सी आई है। लग रऔ जैसे कै....मूल सवाल जां कौ तां न ठाड़ौ रे जाय यादन में जासे..‘अरे काँ कछू ऐसौ लिखौ के लेखकन में नाँव हो जातौ। बौ तो बस जब कभउँ....।’
‘हमने सुनी ती सरसुती की किरपा जौन पै होत बौई लिखपढ़ पाउत।’ तौ जौ किरपा कौ फल माने कैं... अम्मा अपढ़ प्रायः हैं। केवल रामान पढ़बे और टूटी फूटी बुन्देली में चिट्ठी लिखबे तक सीमित ज्ञान नारी हतीं। लेकिन उनके सवाल रचनाओं, रचनाकार की जमीन तक जाने बाले पाकै मैं हक्कौ-बक्कौ सौ कई बेर उनै देखत रततौ। जानत तौ कै हमने उनके सवाल टारे तौ अगली बेर दतिया आने पै वे घूंम फिरकै फिर बईं आजें। जासे थोड़ी देर तक सोच कैं, चालीस साल से जा लिखा पढ़ी के गर्भ में जाने के लानै हम थोड़े अतीत से अब तक की लेखन यात्रा पर विचार में डूब गये।
‘अम्मा तौ अब तुमउ पास बैठौ। अरई बाद में बनाइयो। तुम एैसे सवाल करती हौं जैसे टेलीविजन बारे करत हम से। जानती हौं, जौन बातें हमईं हो रईं वे लिखा पढ़ी बारिन की बोली में का कयाऊत?’
‘का’
‘इन्टरव्यू,...अम्मा लिखवे के लाने हमने कभउँ नई सोची ती। लेकिन कछु-कछू बातें एैसी होती कै उनैं बिना सब तक पौचाये, एक अकबकी सी मन में बनीयई रत। तब आदमी कलम उठा लेत। शुरू में कच्चो पक्को लिखत फिर...करत-करत अभ्यास के जड़मतऊ सुजान हो जात।’
‘भैया, दादा तुमाई दोऊ प्रकार की लिखी कहानियाँ और कवितायें ल्याकै हमैं चश्मा सहित पढ़वै रख देत। कभऊँ-कभऊँ कविता तौ हम पढ़ लेत। लेकिन बड़ी कहानियाँ पढ़त-पढ़त थक जात। सो....तुम बताओ दोऊअन में का अन्तर रत।’
‘एक कविता में सैकड़ों कहानियाँ होती अम्मा। हम लोगों की भाषा में कविता, कहानियों की शीर्षक समझ लो।
‘भैय्या एक बात और, हमारी समझ सैं तो हर कनियाँ कविता तबईं पैदा होत जब कोऊ प्रेम में....का तैने लिखवौ ऐसी गई कछु बात से शुरू करौ?’
माँ और बेटा! इन्टरव्यू लै रई माँ और उत्तर दे रऔ बेटा। तुम पढ़बे बारे जै बातें सोचौ तो यार। मजा तौ आयेहेई। लेकिन लेखक/कवि यानी कि मेरी स्थिति।
हम कछु देर तक किंकर्तव्यविमूढ से। का कँय? तुमई ने बुनी बुनियाद और तुमईं पूंछ रईं कि....‘याद है तुमै। तुमने दादा के छाती पै मूंढ धर कै कईती-बेटा घरै आई लक्ष्मी नई ठुकराई जात और मैं मान गऔ तो व्याव खौ। फिर याद करौ 1965 की बात। तुमई बा सुनार की मौड़ी से हमाओ ब्याव करबै बाकी मताई से मिन्नत करबे गईं तीं। ससुर ने रुपैयन के जोर से बा मौड़ी खौ बिवआ दऔ तो अन्त। याद करौ कै जौन दिना ब्याव हतौ बा मौड़ी कौ, ठीक सामने के मकान में, हम चले गये ते मन्दसौर ए0पी0जी0 की नौकरी ज्वाइन करबे।’
‘हम जानत ते कै जोई बात हुयै’...वे रौन लगीं ती। ‘तबईं तौ मुकेश के गाना ऐसे गाऊत कै...हमई हैं तोरे दोषवार। पर बेटा हममें तब उतैकई अकल हती। हम समझे ते कै.... बिना पसंद की लुगाई के आदमी कैसे जियत हुयै हम अब समझ सकत। तब....।’
‘लेऔ अब खुदई बात शुरू करकै खुदई... तुलसीदास के साथ तो किसी माँ-बाप ने ऐसा नहीं किया था न? यह सब तौ जीवन कौ क्रम है। तुने कछु बुरऔ नई करौ तो। आज सोचत तौ लगत सब ठीकई भऔ। बरना... बा सबनै बई उमर में भीतर एक आग सी भर दई ती। बई से तुमाओ मौड़ा आज यहां तक पौचो।’
‘सबसे पैले का लिखौ तो?’
‘एक असफल प्रेम आदिवासी युगल कथा। वह छपी तो प्रोत्साहन मिलौ। जीवनानुभव ने हर गलत बात के प्रति विद्रोह करने की ताकत भर दई ती। न्यायालीय मामलों में न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर कानून के बंधे हाथों जब न्याय नहीं हो पाता तो लिखता। धर्मयुग, कादम्बनी, सारिका ने उन्हें निरन्तर छापा। तब बिना कोई बड़ी डिग्री के भाषा खुद बनती चली गई। कबीर कौन से पढ़े लिखे थे। ईशुरी ने कौन सी डिग्रियां ली थीं। अम्मा अकल आई तो पद के साथ शकल सूरत भी बदल गई।’
‘तुमाई सबसे अच्छी कविता?
‘गीत है एक, बीते हुए गुजरे पल, कितना तड़पाते हैं। जाने वे पलक्षण, लौट कहाँ पाते हैं। औरउ कई गीत हैं।’
‘बुन्देली में?
‘भौजी तनक सम्हर कै रईयो, होरी पै जिन निकरियौ’
‘अमियन में बौर परे, फूले करौदा हरे, सखी री वे ऐसे में जाने का डरे’ और कई रचनायें। तुमई ने कई ती बुन्देली मातृभाषा की सेवा की। इसलिए इस भाषा में जो साहित्य नहीं है, उसकी आपूर्ति की कोशिश करूँगा। तुमाओ आशीर्वाद चइये। रिटायर होने के बाद जौई काम करनै जो समझ लौ।’
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68 विनय नगर ग्वालियर (म0प्र0)