कहौ जू कैसें इतै निवायं -- बुन्देली कविता

अक्टूबर 10-फरवरी 11 == बुन्देलखण्ड विशेष ---- वर्ष-5 ---- अंक-3

बुन्देली कविता--एल0एम0 चौरसिया

कहौ जू कैसें इतै निवायं



कहौ जू कैसें इतै निवायं,


करिया सांप फिरें डग डग पे कां लौं दूध पिआयं।


बस भर लये चुरू में इनकौ सबमें हयो काबें,


दिन खां रात काय तौ हम सोउ तारे बतलाबें।


इतनौ करत रांय तउँ जब तब मसकइं से डस खायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।



फुनगुनियन की देव दवाई बन जातीं फोरा,


गांठ गांठ नासून बने दगवै पोरा पोरा।


बेबस जान बचावै कबलौं एैसई तलफत रायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।



मौं देखी पंच्यात करत हैं कबहुँ ना करें निनोर,


चक्कर काटत रायं तकत रयें इनके दौरन दोर।


मरजादा की मैंड़ बनी सौ कर्रे ना कै पायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।



हम तो बने तांश के पत्ता मन चाहे फैंटें


मन की तुरुप बनाकें अपने हित अनहित भैंटें


ऊपर बने बरम्बू भीतर भस्मासुर से रायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।



मठाधीश बन गये बना के अपनी अपनी गोल,


रंगे लड़इया सी ओड़े हैं भांत भांत की खोल।


सांड़ सांड़ तौलरें बछेरू नाहक कुचरत रायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।



गांठी खोरों दाम आपनी की खां दे खोरी,


प्रजातंत्र में प्रजा, तंत्र पै कसै नही डोरी।


भस्मासुर पै बरदानों की मूरख झड़ी लगायं।


कहौ जू कैसें इतै निवायं।।


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सीताराम कालोनी, हनुमान मन्दिर के पास, छतरपुर (म0प्र0)

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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