ग़ज़ल-ख़याल खन्ना


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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ग़ज़ल-ख़याल खन्ना


(1)

सुब्ह होते ही बिखर जायेंगे सपने सारे।
झूठ की नींव पे रक्खे हैं ये रिश्ते सारे।
सामना कर नहीं सकते कभी आईनों का,
मेरे अतरा़फ में बिखरे हैं वो चेहरे सारे।।
जुस्तजु, आरजू, इख़्लास, मुहब्बत, ईसार,
मैं अकेला हूँ, मसाइल मेरे इतने सारे।
चीख़ते-चीख़ते आवाज़ मेरी बैठ गई,
क्यूँ मेरे हिस्से में आये हैं ये बहरे सारे।।
तुम में कुछ बात अगर है तो मेरे सामने आओ,
फूँक डालो ये सभी बीच के परदे सारे।
अज़्म था जिनमें अंधेरों को मिटाने का ’ख्याल’,
मुझमें दम तोड़ रहे हैं उजाले सारे।

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(2)

समझदारी अगर अपनी जगह है।
दिवानों की डगर अपनी जगह है।
दवा तासीर रखती है य़कीनन,
दुआओं का असर अपनी जगह है।
ये माना खू़ब है जश्ने-चरागां,
मगर लुत्फे-सहर अपनी जगह है।
न देखों आबला पाई को मेरी
मेरा अज़्मे-स़फर अपनी जगह है।
महल की भव्यता पर व्यंग्य करता,
मेरा जर्जर-सा घर अपनी जगह है।
‘ख़याल’ इन रुख बदलते का़फ़िलों में,
हमारी रहगुज़र अपनी जगह है।

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1090 जनकपुरी
बरेली उ0प्र0 243122

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