ग़ज़ल -- रसूल अहमद साग़र


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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ग़ज़ल-रसूल अहमद साग़र


(1)

सत्य पथ से जब कभी विचलित हुआ है आदमी,
बस तभी संसार में आहत हुआ है आदमी।
अब शराफ़त के इसे भाते नहीं कोई उसूल,
क्योंकि बदमाशी में पारंगत हुआ है आदमी।
अपने भीतर हर कोई इक जंग ढोता सा लगे,
चलता-फिरता अब महाभारत हुआ है आदमी।
एक दूजे का परस्पर खून पीने में लगे,
खून क्या तेरे लिए शरबत हुआ है आदमी।
जिन्दगी पूरी की पूरी है अभी भी रंकवत,
कौन कहता है कि राजावत हुआ है आदमी।
मिल गया है देखने को उसको ‘सागर’ रामराज्य,
आदमी जब-जब भी शत प्रतिशत हुआ है आदमी।

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(2)

नफ़रतों की आग में यूँ बस्तियाँ रख दी गईं,
घास पर जलती हुई ज्यों तीलियाँ रख दी गईं।
मन्दिरों से मस्जिदों तक का सफ़र कुछ भी न था,
बस हमारे ही दिलों में दूरियाँ रख दी गईं।
हिन्दू-मुस्लिम ने कभी जब एकता का मन किया,
धर्म की दोनों तरफ, बारीकियाँ रख दी गईं।
हक़ में लीडर के हमेशा हर बजट आता रहा,
मु़फलिसों के रूबरू मजबूरियाँ रख दी गईं।
मैंने छेड़ी जंग जब भी माफियाओं के खिलाफ
मेरे सीने पर तभी कुछ बरछियाँ रख दी गईं।
लिख रहा था वो सियासत की हक़ीक़त इसलिए
काटकर उसकी सरासर उँगलियाँ रख दी गईं।
हो गये ‘सागर’ उजाले रौशनी वालों के नाम,
मेरे हिस्से में सभी तारीकियाँ रख दी गईं।

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बकाई मंजिल,
रामपुरा (जालौन)-285127 उ0प्र0

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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