ग़ज़ल -- अनिल वर्मा


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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ग़ज़ल-अनिल वर्मा


(1)
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दर्द जितना पाया है दोस्तों के वारों से
उतनी जिन्दगी सँवार ली गैर के सहारों से।
फेंकते हैं पत्थर जो गैर के मकानों पर,
खुद बना रहे वो अपने घर काँच की दीवारों से।
रोशनी की खातिर क्यों लोग जलाते हैं बस्तियाँ
हम तो पा रहे हैं उजाला चाँद औ सितारों से।
मंजिले दिखा रहे वही रास्तों से जो भटक गये
कैसे मकां पायेगे पूछिये कहारों से।
हर खुशी समर्पित की दोस्ती निभाने में
ग़म के सिवा और क्या मिला हमको अपने यारों से।

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(2)
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तेरी जब भी कसम से हमको याद आती है
सारे सुख चैन के खोने की याद आती है।
वो किनारे नदी के रेत के घरौंदों से
कल्पना लोक में खोने की याद आती है।
सिला तराश के पाया था जिसकी मूरत को,
उसकी मासूम सी सूरत की याद आती है।
चाँदनी रात में दीवानों के अक्सर मिलने
रूठने और मनाने की याद आती है।
किये थे वादे जिसने साथ जीने मरने के
उसी बेदर्द बेवफा की याद आती है।

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ग्राम कुतुबुद्दीन गढ़ेवा,
पो0 टेढ़ा,
जनपद उन्नाव

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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