ग़ज़ल-डॉ0 हरिकृष्ण प्रसाद गुप्ता ‘अग्रहरि’


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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ग़ज़ल-डॉ0 हरिकृष्ण प्रसाद गुप्ता ‘अग्रहरि’


याद तुम्हारी ले आती है;
रात न जाने क्यों आती है।
शीतलता भी अब तन-मन में;
ना जाने क्यों झुलसाती है।
शाम ढले परछाई हमसे;
चुपके-चुपके बतियाती है।
झील लगे जंगल में जैसे;
पायलिया-सी खनकाती है।
तपते मन पर आँख की बदली;
शीतल आँसू बरसाती है।
कोयल चुप ही रहती है या;
गीत खुशी के ही गाती है।
बीच भँवर में हिम्मत हमको;
जीवन जीना सिखलाती है।
चाक किया जाना है सीना;
धरती फिर भी मुसकाती है।
पी सकता है विष ये ‘अग्रहरि’ ही;
फौलादी उसकी छाती है।

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अग्रहरि भवन
पो0 भेलाही, बाया-खसौल
जिला पूर्वचम्पारण-845305

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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