गजल-ओम रायजादा


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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गजल-ओम रायजादा


(1)
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अपने ये ढंग हो गये।
सपने बदरंग हो गये।।
भीड़ के इस जंगल के बीच।
रस्ते सब तंग हो गये।।
सुविधाओं ने बेचा तन।
सुनकर हम दंग हो गये।।
खण्डहर में ठहरे थे लोग।
सब ही अपंग हो गये।।
मरघट तक पहुँचाने लोग।
मुरदे के संग हो गये।।
बेसुरे जो बजते थे साज।
सब जलतरंग हो गये।।
जीवन के ये काले दिन।
अंधी सुरंग हो गये।।
कल तक अपाहिज थे जो।
आज वे तुरंग हो गये।।
कैसे आकाश में उड़ें।
परकटे विहंग हो गये।।
‘ओम’ अब तो जीवन के दिन।
इक कटी पतंग हो गये।।

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(2)
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अब तक इतने छले गये हो गए हैं।
सपने शीशमहल हो गये हैं।।
घर से बाहर कैसे निकलें।
पर्वत तक दल-दल हो गये हैं।।
घाव नए अब कहाँ सहेजें।
पोर-पोर घायल हो गए हैं।।
घूम रहे निर्द्वन्द्व भेड़िये।
शहर-शहर जंगल हो गए हैं।।
विषधर आस-पास फैले हैं।
हम शायद सन्दल हो गये हैं।।
बरखा ने क्या जुल्म ढहाये।
निर्मोही बादल हो गए हैं।।
इतने दर्द दिए मित्रों ने।
‘ओम’ के शब्द गजल हो गए हैं।।

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शक्तिनगर, सावरकर वार्ड,
कटनी (म0प्र0) 483501

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