गीत-अश्विनी कुमार ‘आलोक’


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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गीत-अश्विनी कुमार ‘आलोक’


आज बचा लो फूलों को तुम इनमें प्रेम खिला है
जाने कितना अपनापन मिट्टी का इन्हें मिला है।
अपनेपन में अपनों सी
खुशबू मिट्टी देती है
फूलों में यौवन हँसता है
देह इसे लेती है
इस पड़ाव में उम्र
ठहरकर ही जीती जाती है
पता नहीं, किस इन्द्रधनुष में
कौन रंग लाती है
अंगारे बरसाते होंठों से संसार हिला है।
मर्यादा पत्थर की लेकर
नम्र पहाड़ बने हैं
एक तरह की मिट्टी से ही
सारे शृंगार बने हैं
रखती हैं नदियाँ भी प्रायः
नेह नगर की चादर
जंगल-जंगल दे जाते हैं
पूजा जैसे आदर
ले आती है कहाँ-कहाँ से गीत-गंध अनिला है।
तुम जितना ले सको
वहीं तक सपनों को चुन लेना
सम्बन्धों का क्षेत्र बहुत ही
व्यापक है सुन लेना
लोगों तो देने का दर्द
उठाना भी पड़ सकता
खड़े-खड़े उस महाहिमालय
में कुछ लघु भटकता
नदियाँ हैं, जंगल हैं, झरना, पर्वत संग शिला है।

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प्रभा निकेतन,
पत्रकार कॉलोनी, महनार, वैशाली-844506

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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