कविता -- डॉ0 महेन्द्र भानावत -- अन्तहीन यात्राओं के लिए अनाम


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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कविता-डॉ0 महेन्द्र भानावत
अन्तहीन यात्राओं के लिए अनाम


बार-बार तुमने मेरा नाम पूछा
मैं क्या बताऊँ अपना नाम
नाम तो श्री भगवान का।
क्या धरा है मेरे नाम में
कई नाम रहे होंगे मेरे
पिछले जन्मों में
मैं कई जन्मों का संस्करण हूँ।
वे सब जन्म छाया की तरह
लुके हैं मेरे साथ
जो दिखाई नहीं देते।
वे अदृश्य में
संस्कार शील और स्मृतियों से
पूरते हैं मुझे
परिपूर्ण करने की कोशिश करते हैं।
मैं फिर इस जन्म में उलझ गया हूँ
इसीलिए तो कहा है -
जनम-जनम का फेरा रे
मैं कहाँ-कहाँ अब
डालूँ अपना डेरा रे
सब यहीं पड़ा रह जाना रे
मिटटी हो या कि खजाना रे
क्या तेरा क्या मेरा रे
जनम-जनम का, फेरा रे।
माँ ने बताया था मुझे
कि मैं माता जी की मनौती से हुआ हूँ
पालना बँधाया गया था
नाक में नथड़ी पहनाई थी
और नाम दिया था नत्थू
जिसका तोरण पर सासुमां ने
नारक्या दिया था।
यह टोटका था
वैवाहिक जीवन की दीर्घजीवी खुशी का
तभी तो पहली बच्ची हुई
नाम रखा गया था खुशी।
यों मैं थावर को हुआ था
सो पास में रहने वाले
भीमा भाया ने मुझे
थावर्या कहना शुरू कर दिया था।
नाक बहुत बहने के कारण
भुवा ने लाड़ में मुझे हेबड़ कह दिया
और बहुत रोने के कारण
रोड़ी के हवाले कर दिया
तब एक नाम
रोड़या भी पड़ गया।
माँ जब बीमार हो गई
तो मौसी ने पाला
मेरा नाम रोड़ीवाला रतन कर दिया।
फिर महादेव के मेले में
ले गये चाचा
वहाँ गुदने वाला था
उन्होंने मेरे हाथ पर
मिठू गुदवा दिया
बोले -
जब मैं चार माह का था
तभी ऊँची मेड़ी में
पालने में झूलते समय
कहीं से
एक मिठू उड़ता हुआ आया
और मेरे संग झूलने लग गया।
पहली बार जब मुझे
स्कूल ले जाया गया
दादी ने दाख खाने को दी
दादा छोटी थड़ी के थे
ठिंगने
सफेद दाढ़ी लिए
उनके सिर पर
सफेद लम्बे बालों के
तीन बड़े पट्टे थे।
भैंस के सींगड़े से बने
महीन दाँतों वाले
धनुषाकार कांगसिये से
वे बाल सँवारा करते थे
उन्होंने आशिष दिया
मदन मस्त रहो।
पिताजी सरवण पूत थे
अतः उन्होंने स्कूल में
मेरा नाम मदन लिखवा दिया।
दूसरे ही दिन
लड़कों ने मुझे चिढ़ाना शुरू किया-
मदन मदारी
फूटी तगारी
तगारी में तेल
मदन होग्यो फेल।
मैंने घर आकर
धाड़ापाड़ रोना शुरू कर दिया
लगा जैसे आसमां से
बदली फट गई
पूरे मोहल्ले की आँखें
मेरी ओर अट गईं।
उन्हीं दिनों देश आजाद हो गया
मारे खुशियों से सब लपके
हम भी दूसरी से
चौथी में जा टपके
नई हवा और रोशनी से
पूरा स्कूल भर दिया
माड़साब ने मेरा नाम
मदन से महेन्द्र कर दिया।
मैं इस जनम में ही
कई नामों से गुजरता रहा हूँ
अब मैं अनाम होना चाहता हूँ
अगली अन्तहीन यात्राओं के लिए।
वे सब लोग
जिनमें से आधे अब नहीं रहे
जब भी मिलते हैं
मुझे उन्हीं नामों से पुकारते हैं
नत्थू, थावर्या, हेबड़, रोड़्या,
रतन, मिठु, मदन
मैं इन सब नामों से बोलता हूँ
जानता हूँ
नाम में क्या धरा है।

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352 श्रीकृष्णपुरा,
सेंटपॉल स्कूल के पास, उदयपुर-313001

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