ग़ज़ल -- हितेश कुमार शर्मा -- वन्दे मातरम्, गद्दारे वतन
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- ग़ज़ल-हितेश कुमार शर्मा |
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वन्दे मातरम् |
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किसने लिखा है भाल पर भारत के वन्दे मातरम्,
यह कौन उषाकाल में गाता है वन्दे मातरम्।
हम हैं अभी पहने हुए अंग्रेजियत की बेड़ियाँ,
बस व्यंग्य सा लगता है हमको मित्र वन्दे मातरम्।
हो दासता से मुक्त अपनी भारती माँ भारती,
होगा तभी तो सत्य शाश्वत घोष वन्दे मातरम्।
इस देश में अब देशहित की बात होती है नहीं,
बस चल रहा भारत भरोसे राम वन्दे मातरम्।
है धार्मिक उन्माद की ऐसी पराकाष्ठा यहाँ,
कुछ लोग कहने को नहीं तैयार वन्दे मातरम्।
न्यायालयों, कार्यालयों में हैं सहस्त्रों रिक्तियाँ,
भरता नहीं कोई उन्हें निस्वार्थ वन्दे मातरम्।
आत्मा हमारी मर गई, परमात्मा भी खो गया,
हावी है सुविधा शुल्क सिद्धि स्वार्थ वन्दे मातरम्।
हिन्दी है हिन्दुस्तान में परित्यक्त पत्नी की तरह,
अंग्रेजियत है प्रेमिका सत्ता की वन्दे मातरम।
जो देश हम पर कर रहा आतंकियाँ हमले हितेश,
हम साथ उसके खेलते क्रिकेट वन्दे मातरम्।
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गद्दारे वतन |
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बन्द करवाया है झगड़ा-दंगा जिसने आज भी।
और कल इसका किया था उसने ही आगाज़ भी।
यह उड़ाते हैं कबूतर भी, अमन के वास्ते-
और उन पर छोड़ देते हैं, शिकारी बाज़ भी।
किस कदर यह दोगले हैं, सिर्फ कुर्सी के लिए,
दुश्मनों से देश के, हो जाये हैं हमसाज भी।
यह वही जयचन्द हैं, जब-जब जहाँ पैदा हुए,
दावतें गोरी को दीं, मरवाये पृथ्वीराज भी।
यह भले ही कुछ की-नज़रों में हों गद्दारे वतन,
पर इन्हें हासिल रहे हैं, तख्त, कुर्सी, ताज़ भी।
इनको सब पहचानते हैं, जो हैं सत्ता के दलाल,
यह उन्हीं के और वह आते हैं इनके काज़ भी।
कौम को आपस में लड़वाना भी इनका शौक है,
यह लगाते ज़ख़्म करवाते यही ईलाज भी।
किस कदर मशकूक हैं, सरगोशियाँ इनकी हितेश
बेचते हैं खुदपरस्ती को, वतन के राज भी।
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