गीत -- राधेश्याम योगी -- बस मिलने की लाचारी है


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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गीत-राधेश्याम योगी
बस मिलने की लाचारी है


किस तरह उऋण होऊँ तुमसे? कैसे प्राणों की बात कहूँ?
जो कुछ भी आज पास मेरे, सब पर तो मोहर तुम्हारी है
बस मिलने की लाचारी है।
छै दशक हो गये जब हम तुम, घंटों बैठे बतियाते थे
उन्माद भरी साँसें होतीं, हम जाने क्या-क्या गाते थे
स्पर्श-दूर ही रहे खड़े, तन मछरी जैसे तड़पे थे
अंदर से बहुत चाहते थे, पर बाहर कभी न बहके थे
हर घड़ी अयाचित मर्यादा, करती दोनों की रखवाली
अब तुम्हें भुलाने की साँसों ने की असफल तैयारी है
कैसी अद्भुद लाचारी है।

तुम तन से बहुत अधिक सुन्दर, तुम मन से तो सुन्दरतम थे
सब अलंकार झुठला देते, वे हाव भाव भी अनुपम थे
मादकते मनहर मुस्काना, कहते कहते कुछ रुक जाना
पल पल पलकों को झपकाना, बिन कहे बहुत कुछ कह जाना
तुम अकुलाये से उठ जाते मैं सिसियाये सा रह जाता
जो अंत समय तक नहीं मिटे, अब तक वह शेष खुमारी है
फिर भी कितनी लाचारी है।

जितनी सुगंध साँसों में है, सब घुँघराले बालों की है
जितनी भी कहीं लालिमा है, अधरों की है, गालों की है
जब जब कलियाँ खिलते देखूँ या भवरों का गुनगुन गाना
या कहीं पपीहे की पिऊ-पिऊ या चंदा का छिप-छिप जाना
तब याद तुम्हारी आती है आते-जाते कह जाती है
बोलो कब कब किस राधा को, मिल सका कहाँ बनवारी है
बस इसीलिए लाचारी है।

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122 नारोभास्कर जालौन-285123

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