ग़ज़ल -- जयसिंह अलवरी -- जिनपे था यकीं, गिनोगे तो


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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ग़ज़ल-जयसिंह अलवरी




जिनपे था यकीं


मरहम के वास्ते, उठाया पर्दा तो
देख ज़ख़्म चारागर भी सहम उठे।
समझ सका ना कोई ग़म हमारा
हम तन्हा तन्हाई में बहुत घुटे।
था यकीं जिन्हें कहते थे अपने
मुश्किल में कर किनारा वे भी रूठे।
वक्त पे जाना हमने कि कैसे वे
रिश्ते-नाते कसमे-वादे निकले झूठे।
हो सकती ना कभी मरहम मयस्सर
दिल के आबले दिल में ही बने फूटे।
चार दिन के सफर में कर यकीं
पग-पग पे हम लूट के भी लुटे।
बदले-वफा के मिले सदमे इतने
कि दिल के जर्रे-जर्रे कराह उठे।

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गिनोगे तो


बने इस स्वार्थ के साम्राज्य में,
लूट रहा है अक्सर जो भोला है।
सपना-सपना बनके रह गया,
जब से भ्रष्टता ने मुँह खोला है।
कभी अमन था खुशियों में खोते थे,
अब तो फिजा में भी जहर घोला है।
महँगीं बहुत पड़ी हैं उसे साँसें,
जिसने भी यहाँ सच बोला है।
चन्द सिक्कों की खनखनाहट में,
अब इन्साफ तक को तोला है।
गिनोगे तो थक जाओगे ‘जय’,
दागों में दगा हर उजला चोला है।

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सम्पादक-साहित्य सरोवर
दिल्ली स्वीट, सिरूगुप्पा-583121
जिला बल्लारी (कर्नाटक)

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