गीत -- सुभाष गुप्त ‘स्नेही’ -- बुरी नजर किसने लगा दी?, गीत गाये हम मिलन के
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- गीत-सुभाष गुप्त ‘स्नेही’ |
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बुरी नजर किसने लगा दी? |
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वतन में मजहबी हवा, किसने चला दी फिर से?
हर जगह आज यह आग, किसने लगा दी फिर से?
हम तो सोचते थे, आजाद वतन हो ही गया।
दिल पे चाबी कौम की, किसने लगा दी फिर से?
गुल चमन में रह के भी, रहता है संग शूल के।
फिर अलगाव की आँधी, किसने चला दी फिर से?
बेशक बहु भाषा, अनेक कौम और मजहब हों,
इन सुन्दर पुष्पों में आग, किसने लगा दी फिर से?
करते सभी धर्म-मजहब, इंसानियत की इबादत।
आज यों मन में नफरत, किसने फैला दी फिर से?
एक हम रहे यहाँ तो उल्फत, बनेगा धर्म-मजहब।
पाक-रस्मों की रंगोली, किसने मिटा दी फिर से?
‘स्नेही’ जलता आशियाँ, खुद के चिराग से आज।
बुरी नजर अब वतन पे, किसने लगा दी फिर से?
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गीत गाये हम मिलन के |
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आज गगन झुक के, धरा पर कह रहा।
आओ गीत गायें, हम मिलन के।।
यत्र-तत्र फैला है जो, वैमनष्य-गरल।
अमृत बना, गीत गायें, हम मिलन के।
भुला धर्म-मजहब, कौम की दूरियाँ।
आओ गीत गायें, हम मिलन के।।
न जाने कब, जीवन-दीप बुझ जाये?
आज सभी गीत गायें, हम मिलन के।।
प्रेम-पावस बिना, शुष्क हृदय-क्षेत्र को।
प्रेम-सिक्त कर, गीत गायें हम मिलन के।।
फूट की सर्वत्र चलती, इस आँधी को।
आज रोक गीत गायें, हम मिलन के।।
देश है अपना, सभी तो हैं अपने।
गुलदस्ता बन, गीत गायें हम मिलन के।।
‘स्नेही’ पढ़ाओ पाठ, मानवता के।
आओ फिर गीत गायें, हम मिलन के।।
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