मुक्तक-रवीन्द्र नाथ मिश्र


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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मुक्तक-रवीन्द्र नाथ मिश्र


जल थल नभ की सृष्टि-सृजन की ये आधार शिलायें,
मौन वृक्ष में भी रहती हैं ये अव्यक्त हवायें।
आगम निगम पुराण कह रहे इसकी अकथ कथायें
किस उपवन की शाखी हैं ये साँसों की समिधायें।।

पातंजलि ने योग सिद्ध का साधन इसे बनाया,
गुरु गोरख नानक कबीर को महा मन्त्र यह भाया।
गगन महल में दीपक बनकर अलख अरूप लखायें,
किस उपवन की शाखी हैं ये साँसों की समिधायें।।

पता लगाकर हारे पंछी इसका पता न पाये,
कागज के ये पंख पखेरू कैसे उड़कर आये।
लगता है जैसे है इनका मलय समीर संघाती,
इसने ही दी होगी इनको इस गुलशन की पाती।।

गीतों-गीतों में ही जाने किसने किया इशारा,
जड़ भी चेतन हो जाता है पाकर साथ तुम्हारा।
राजहंस बन चले पखेरू मिली प्राण की बाती,
अमृत वन तक ले आये ये मलय समीर संघाती।।

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द्वारा-डॉ0 अशोक ‘गुलशन’
उत्तरी कानूनगोपुरा, बहराइच उ0प्र0

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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