कविता-ग़ज़ल -- देवी नागरानी
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- कविता-देवी नागरानी |
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ये है पहचान, एक औरत की
माँ, बहन, बीवी, बेटी या देवी
अपने आँचल की छाँव में सबको
दे रही है पनाह औरत ही
दरिया अश्कों का पार करती वो
ज़िन्दगी के भँवर में जो रहती
दुनिया वाले बदल गये लेकिन
एक मैं ही हूँ जो नहीं बदली
जितनी ऊँची इमारतें हैं ये
मैं तो लगती हूँ उतनी ही छोटी
बेनकाबों की भीड़ में ‘देवी’
खुद को पर्दानशीं नहीं करती
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ग़ज़ल |
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खुदा तू है कहाँ ये ज़िक्र ही सबकी जुबां पर था
जमीं पर तू कहाँ मिलता हमें तू आसमां पर था
वफ़ा मेरी नज़रअंदाज़ कर दी उन दिवानों ने
मेरी ही नेकियों का ज़िक्र कल जिनकी जुबाँ पर था
भरोसा दोस्त से बढ़कर किया था मैंने दुश्मन पर
मेरा ईमान हर लम्हा मक़ामे -इम्तहां पर था
बड़ा ज़ालिम लुटेरा था वो जिसने नोच ली इस्मत
मगर इलजाम बदकारी का आखि़र बेजुबाँ पर था
ये आँसू, दर्दो-ग़म, आहें सभी हैं मस्अले दिल के
मुहब्बत का ज़माना बोझ इक क़लबे-जवाँ पर था
गुज़ारी ज़िन्दगी बेहोश होकर मैंने दुनियाँ में
मेरा विश्वास सदियों से न जाने किस गुमाँ पर था
बहुत से आशियाने थे गुलिस्तां में, मगर ‘देवी’
सितम बर्क़े-तपां का सिर्फ मेरे आशियाँ पर था।
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