कविता -- डॉ0 शशिकला त्रिपाठी -- कमरों में कैद घर


जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
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कविता-डॉ0 शशिकला त्रिपाठी
कमरों में कैद घर


घर वही था
जिसमें रहती थी माँ
लट्टू जैसी नाचती माँ।
सदा के लिए बनती ’अन्नपूर्णा’
तो दादी के लिए ’दर्दनाशक-गोली’
बाबू जी के लिए बनती ’उर्वशी-रम्भा’
तो बच्चों के लिए ’गुड़िया-गुड्डा’
माँ हरेक की जरूरत थी।

चूल्हे की दहकती लपटें
कलाइयों को कर देती हों भले स्याह-लाल
मगर माँ के हाथ कभी नहीं रुके
वे रोटियाँ बनाती थीं
गोल-गोल चंदा जैसी फूली हुई,

थाली परोसकर पंखा झलतीं बाबूजी को
गर्मी की उमसभरी दुपहरिया में
करती थीं बातें हल्की-फुल्की ही
ताकि बेस्वाद न हो भोजन,
बच्चों को सिखाती स्लेट पर क लिखना
तो कभी रटातीं पहाड़ा सब्जी काटते हुए
बनाती कभी गीली मिट्टी के आम-अमरूद
तो कभी कागज के नाँव और जहाज
तब पूरे घर में उष्मा की अन्तरंगता की
उठतीं थीं पेंगे अनकहे सहयोग की

क्षण हो, हँसी या रुँदन का
स्वरों में होती थी रुकरुपता
आधुनिक संसाधनों के अभाव में भी,

परन्तु अब उस घर में
माँ नहीं थी, उनकी बहुएँ हैं
वे नहीं बेलतीं रोटियाँ गोल-गोल
बेलतीं हैं अण्डाकार-वर्गाकार
पृथ्वी की तरह परिभाषा बदलने को तत्पर
वे पकाती हैं ईर्ष्या-द्वेष चावल के भगोने में
भौतिकता व फैशन के होड़ में
वे धंसी हुई स्त्रियाँ हैं भोग भँवर के गड्ढे में
अब, घर में बन गये हैं कई कमरे
और कमरों में कैद हो गया है ‘घर’

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उपाचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
वसन्त महिला महाविद्यालय,
राजघाट, वाराणसी-221001

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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