अभिमत --
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 ------------------------------------------------------- अभिमत |
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डॉ0 अलकारानी पुरवार अध्यक्ष-अंग्रेजी विभाग, दयानन्द वैदिक महाविद्यालय, उरई |
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प्रिय सम्पादक जी,
स्पंदन के पिछले अंक - 11 को पढ़कर अत्यन्त निराशा हुई। इससे निश्चित रूप से विगत वर्षों में साहित्यिक पत्रिका के रूप में अर्जित इसकी छवि को धक्का पहुंचा है। कहानियों का संकल तो विशेष रूप से स्तरहीन रहा है। कहानी ‘एहसान’ के माध्यम से लेखक जिन मानवीय संवेदनाओं और आवश्यकताओं का वास्ता देना चाहता है, वास्तव में वह सामाजिक मूल्यों को नकारती, देह सम्बन्ध पर केन्द्रित एवं संवेदनशून्यता की हद पार करती एक खोखली रचना है। ऐसी रचनाओं का हमारे भारतीय परिवेश में कोई स्थान नहीं है। ‘दूध का दाम’ एवं ‘होटल बनाम हॉस्पिटल’ कहानियां भी क्या संदेश देना चाह रहीं, यह तो लेखक ही बेहतर जानते हैं।
अन्त में सम्पादन किसी का भी हो, छवि पत्रिका की धूमिल हुई है। बेहतर भविष्य की उम्मीद में-
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कांति श्रीवास्तव, संस्कृत विभाग, दयानन्द वैदिक महाविद्यालय, उरई |
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स्पंदन का नया अंक पाकर मैं स्तब्ध रह गई। क्या यह वही स्पंदन है जिससे अब तक रूबरू होती रही थी। लग रहा था कि कोई किशोरी बलपूर्वक ढीठ प्रगल्भा में परिवर्तित हो गई। जिसे खुशी-खुशी सभी को पढ़ने देती थी उसे ही दूसरों की नजरों से छुपाती रही। कहानी तथा लघुकथा निम्नस्तरीय व नितांत फूहड़ है। व्यंग्य सतही व छिछला है। कृपया पत्रिका को नई कहानी होने से बचायें। आप सही कह रहे हैं कि बहुत कठिन है डगर पनघट की। आप सच ही कह रहे हैं कि निसंदेह बहुत ही कठिन है डगर पनघट की।