गीतिका -- रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- गीतिका रमेशचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ |
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तेरी मेरी कहानी हुई,
जिन्दगी बागवानी हुई
सुख के दिन थे कर्पूर से
साथ पीड़ा सयानी हुई
क्या पता? भोर कब हो गयी?
रात इतनी लुभानी हुई
सारी जगती के प्यारे थे हम
साथ जब तक जवानी हुई
आना-जाना जहाँ पर कठिन
प्यार की राजधानी हुई
भस्म खुशियों को हमने किया
जिन्दगी आग पानी हुई।
दूर होते गये मित्र सब
लट्ठ की चोट वाणी हुई
आँसुओं से बुझी ही नहीं
आग मुश्किल बुझानी हुई
देखते वे पलटकर नहीं
प्रीति मुश्किल निभानी हुई।
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गीतिका |
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अच्छी ख़बर नहीं कोई भी
पावन नगर नहीं कोई भी
जो उनके घर तक पहुँचा दे
मिलती डगर नहीं कोई भी
सर्पों का विष चूस लिया है
उनमें जहर नहीं कोई भी
साथ जन्म के मृत्यु सुनिश्चित
मानव अमर नहीं कोई भी
चर्चा परिचर्चायें होतीं
होता असर नहीं कोई भी
सुख के संगी साथी दुख में
आता नजर नहीं कोई भी
जो अधबर से वापस आये
ऐसी लहर नहीं कोई भी।
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