शृंगारी दोहे -- इं0 संजीव वर्मा ‘सलिल’
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- शृंगारी दोहे-इं0 संजीव वर्मा ‘सलिल’ |
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रूप तुम्हारा देखकर, लजा रही है धूप,
नत मस्तक हो विनत है, रसिक सूर्य सा भूप।
तुमको विधना ने दिया, यौवन-धन अनमोल,
तुम क्यों राहों पर चलो, सँभल कदम को तोल।
नाच रही है रूपसी सुन रसिया की बीन,
नूपुर करता प्रार्थना, नयन ध्यान में लीन।
दिनकर बैठा मुँह छिपा, कोहरा बना नकाब,
धरा कहे-बुर्का पहन, क्यों हो छिपे जनाब?
सूर्य मूंदकर निज नयन, देख रहा है ख्वाब,
प्राची -गाल गुलाल से, रंगकर हुए गुलाब।
कलकल ध्वनि कर मोहता, मन को निर्झर नीर,
अठखेली करती शिला, सलिल नाद गम्भीर।
नागिन सी बल खा रही, केश राशि फुँफकार,
वक्ष-नितम्ब शिला पृथुल, सलिल गया मन हार।
मन माटी कमजोर है, मनहर सुन्दर गात,
तन कुम्हार का चाक है, प्रेमिल दीप प्रभात।
संगमरमरी देह का, अंग-अंग हुआ अनंग,
गर्वीले उन्नत शिखर, गहन घाटियाँ तंग।
गोलक द्वै या झूलते, शाखों बिच दो आम,
मन मचले मनचलों का, रति पूछे कित काम।
कमसिन कुसुम कली कहे, कहो रूप पर गीत,
अमल विमल निर्मल ‘सलिल’ सी पालो अब प्रीत।
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सम्पादक-नर्मदा
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