कविता -- आर0डी0 अग्रवाल ‘प्रेमी’ -- आदमी जिंदा लाश......
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- कविता-आर0डी0 अग्रवाल ‘प्रेमी’ आदमी जिंदा लाश...... |
---|
आदमी जिंदा लाश की तरह है जी रहा,
यह दुनिया झूठी, स्वार्थ का है फसाना;
यहाँ की हर चीज है धोखादायी,
यहाँ कोई किसी का नहीं है भाई;
हर आदमी है बेसहारा, नहीं है कोई सहारा,
आदमी जिंदा लाश की तरह है जी रहा!!
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम,
आदमी दो जून पेट भरने के लिए है परेशान!
न कोई रंग है, न रंगत, बिन नमक का भोजन,
बेरस, फीका, बेस्वाद है जीवन-जी रहा!
आदमी जिंदा लाश की तरह है जी रहा!!
खाना-पीना सो जाना सब काम है पशु समाना,
बिना ज्ञान जीवन नरक बना, कुछ भी नहीं सुहाता!
भीड़ में अकेला खो गया, अपनी ही पहचान भूल गया,
जीवन का न कोई ठिकाना, क्यों कर है जी रहा?
आदमी जिंदा लाश की तरह है जी रहा!
==================================
32/34 खेतवाड़ी, मुम्बई-4