बुन्देली कविता - सुरेशचंद्र त्रिपाठी
नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ---------------------------------------------------------------- बुन्देली कविता --------------------------- सुरेश चन्द्र त्रिपाठी |
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(1) हम जानत हैं
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समरथ का नइँ दोष गुसइयाँ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
घलीं तुम्हाए कभउँ पन्हइयाँ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
करने हते हाथ मोड़ी के पीरे, सो कढ़ुआ काढ़ो तो,
स्यानी बिटिया जैसें काढ़ी, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
रुक्का पै लगवाय अँगूठा, शुन्न बढ़ाय हजार लिख लये,
जमींदार है जौन आदमी, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
तब से ओखे बँजरा मैं, हर जोतत, दिहिया भई पुरानी,
अभउँ ब्याज कहाँ चुक पाओ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
ब्याज सहित पैसा दै जा, लै जइये तब, कह छोर लै गओ,
कित्ती सूधी धौरी गइया, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
ना मेवा, ना भोग मिठाई, दूध, दही, घी, नेनू, रवड़ी,
नोन -मिर्च के संग पनपथू, तुम का जानौ हम जानत हैं।
सर्जी, स्वेटर, कोट, रजाई, ऊनी कम्बल, गद्दा तकिया,
आये ओखे पास कहाँ से, तुम का जानौ हम जानत हैं।
बदरा, बुँदियाँ, हवा बरफ सी, कोहरा, माव-पूस को जाड़ो,
चदरा भर से रात काटबो, तुम का जानौ हम जानत हैं।
अतरे चैथे ठाड़ो द्वारे करत रहत है गारी-गुल्ला,
रामलली के आँखन अँसुआ, तुम का जानौ हम जानत हैं।
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(2) तरसा तरसो
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पानी उगलै नलकूप, नहाबे का बूढ़ो तरसा तरसो।
गोली गुटकै बन्दूक, धुरै फरसा के मन मन माहुर सो।।
करन माहौट चलो जब धाय, इन्द्र राजा की आज्ञा पाय।
देख हदरानो बदरा, खेत चिरइन नें सरसर पानी बरसो।।
सोच रइ घूरे वाली खाद, जमानों कर कर अपनो याद।
यूरिया, डी0ए0पी0 ने हरो कर दओ, खेत लगत्तो बंजर सो।।
मूड़ कटवाबैं निज बरसीम, हुय रहो चारो खुशी असीम।
चलै ना अब हमपै खुर्पी हँसिया, फूली जरिया को मन हरसो।।
बंधत्ते हीरा-मोती जितै, ढिले हैं ट्रिलर ट्रैक्टर उतै।
परे कोने मैं, बातैं कर कर रातै, गये दुखी हर बक्खर सो।।
ददा ने दवा दई छिरकाय, चना अब फूलो नईं समाय।
इली के लगीं ततइयाँ सीं, चोला उनको निज प्रानन का तरसो।।
बचत्ते जाड़े मैं न जांज जितै, हैं खस्सा लग रये आज।
डेक, टी0वी0, सुजुकी ने घरै भरदओ है गागर में सागर सो।।
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