भाषाई विकास का भी सोचिए!!


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
----------------------------------------------------------------
सम्पादकीय - बात दिल की

किसी भी पत्रिका के लिए ‘सम्पादकीय’ एक अनिवार्य अंग समझी जाती है। सम्पादकीय अपने आप में सम्पूर्ण पत्रिका का स्वरूप निर्धारित करती है, ऐसा समझा जाता है। अनेक ऐसी पत्रिकाओं को देखा गया है जो सम्पादकीय विहीन होने के बाद भी उत्कृष्ट हैं। सम्पादकीय युक्त पत्रिकाओं में कुछ की सम्पादकीय तो प्रभावित करती है तो कुछ सम्पादकीय पत्रिका के स्वरूप से मेल नहीं खाती है। पता चलता है कि पत्रिका का स्वरूप तो साहित्यिक-सांस्कृतिक है और सम्पादकीय में राजनीति, विदेश नीति और युद्ध की चर्चा हो रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि साहित्य क्या है और सम्पादकीय किसी पत्रिका के लिए कितनी अनिवार्य है?
जहाँ तक बात अनिवार्यता की है तो हमारे लिए क्या अनिवार्य है, क्या आवश्यक है यह हम अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर निर्धारित करते हैं। पत्र-पत्रिकाओं के सुधी पाठक सम्पादकीय को पूरे मन से पढ़ते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं। कुछ पत्रिकाओं की सम्पादकीय को लेकर अच्छी बहस तक होते देखी है। सम्पादकीय की भाषा-शैली, उसके विचार, भाव-संप्रेषणीयता को लेकर विचार-विमर्श, बहस तक हो जाती है पर भाषा-बोली के सवाल पर हम चुप साध जाते हैं।
भाषा-बोली के विकास के नाम पर, संवर्धन के नाम पर हम दूसरा रास्ता अपनाने लगते हैं। यही कारण है कि आज तक राष्ट्रभाषा हिन्दी को आवश्यक तो समझा गया किन्तु उसकी अनिवार्यता को लेकर सकल प्रयास नहीं किये गये। हिन्दी आज भी वहीं खड़ी अपनी स्वीकार्यता की बाट जोह रही है जहाँ वह स्वाधीनता के दिन थी। हिन्दी भाषा के विकास का मार्ग हमने ‘अंग्रेजी के बिना विकास सम्भव नहीं’, ‘ज्ञान का भंडार अंग्रेजी में ही छिपा है’, उत्कृष्ट पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं’ जैसे कुतर्कों के सहारे अवरुद्ध कर रखा है। इस प्रकार की मानसिकता के द्वारा हम अंग्रेजी का ही पालन-पोषण कर रहे हैं और हिन्दी तिरस्कृत हो रही है।
हिन्दी भाषा के प्रति इस उदासीन रवैये ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों को भी सामाजिक स्वीकार्यता से वंचित कर रखा है। विशेष रूप से बुन्देली भाषा की बात करें तो स्पष्ट होता है कि आज ठेंठ बुन्देली भाषा में लिखने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। तकनीक विकास, समाज विकास और साहित्यिक विकास जैसी सकारात्मक स्थितियों के बाद भी भाषाई विकास नहीं हो पा रहा है। बुन्देली भाषा, साहित्य का इतिहास कितना समृद्ध रहा है इसे किसी भी उदाहरण द्वारा समझाने की आवश्यकता नहीं है। इस अमूल्य, समृद्ध विरासत के बाद भी आज बुन्देली भाषा में साहित्य सर्जना नगण्य रूप में हो रही है।पुरानी पीढ़ी के जो दो-चार नामचीन लेखक रह गये हैं वे काव्य रूप में ही बुन्देली भाषा का पोषण कर रहे हैं, गद्य का सर्वथा अभाव सा दिखता है। यदि नई पीढ़ी के रचनाकारों की ओर दुष्टि डालें तो वे सामाजिक उपेक्षा, व्यंग्य, उपहास के डर के चलते बुन्देली भाषा में साहित्य रचनाशीलता नहीं दिखा रहे हैं। कतिपय युवा रचनाकार बुन्देली भाषा के प्रेम में वशीभूत होने के कारण यदि साहित्य सर्जना कर भी रहे हैं तो वे समाज के सामने उसे प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं।
क्षेत्रीय भाषा-बोली के प्रति उपेक्षा का भाव एकमात्र बुन्देली भाषा के साथ ही नहीं दिख रहा है। ऐसा समझा जाता है कि सम्भवतः यही व्यवहार तमाम क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों के साथ भी अपनाया जाता होगा? विकास की संकल्पना हम तैयार कर रहे हैं, क्षेत्रीयता की बात हम कर रहे हैं, साहित्य-संवर्धन की चर्चा हम करते हैं पर बिना भाषा-बोली के विकास के यह कैसे सम्भव है?
सुधी पाठकजन किसी पत्रिका के लिए जितना अनिवार्य सम्पादकीय को समझते हैं, उतनी ही अनिवार्यता भाषा और बोली के साथ भी रखें तो क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों का भी विकास होगा; राष्ट्रभाषा हिन्दी का भी विकास होगा। भाषाई संस्कृति-विकास के लिए स्वयं हमें जागरूक होना होगा, सचेत रहना होगा, उसकी अनिवार्यता को समझना होगा।

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

  © Free Blogger Templates Photoblog III by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP