मुखर स्वर - डा0 सुरेन्द्र नायक
नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ---------------------------------------------------------------- मुखर स्वर डा0 सुरेन्द्र नायक |
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‘स्पंदन’ जुलाई-अक्टूबर 08 अंक पढ़ते हुए सुखद आश्चर्य हुआ कि उरई जैसे कस्बे से ऐसी उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है। पत्रिकाओं की भीड़ में ’स्पंदन’ अपनी एक अलग पहचान बनाने की ओर अग्रसर है। इसके सामग्री चयन में उत्तरोत्तर विकास जारी है। आशा करता हूँ कि भविष्य में भी इस विकास क्रम को आगे बढ़ाते हुए एवं रचना चयन में प्रखर मौलिकता, बौद्धिकता, समसामयिकता एवं तटस्थ सम्बद्धता का परिचय देते हुए किसी भी पूर्वाग्रह या दबाव को दरकिनार रखा जायेगा।
साहित्यिक पत्रिका निकालना अदम्य जीवट का काम है जिसमें वैचारिक प्रतिबद्धता, स्तरीय सामग्री एवं संसाधन जुटाने की चुनौती का निरन्तर सामना करना पड़ता है। सामान्यतः पत्रिका प्रकाशन वर्ष दर वर्ष घाटे का सौदा है। इसीलिए साहित्यिक पत्रिकायें लघुजीवी होती हैं। पत्रिका की आवृत्ति या जीवनकाल महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण ये है कि पत्रिका ने ऐसी कितनी नयी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया है; जिनका लेखन वर्तमान समय में संचरण करता हुआ भी काल का संक्रमण करता हो और जो कालान्तर में साहित्यिक क्षितिज को आलोकित करे। महत्वपूर्ण ये भी है कि पत्रिका ने कौन सी मौलिक, अप्रकाशित, अछूती, अनुपलब्ध, विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है जिसके लिए उसका भविष्य में उल्लेख किया जायेगा। आम पाठक पत्रिका पढ़ता है ताकि उसे आज की वैश्विक संस्कृति एवं पूंजीवाद के खूनी पंजों से लहूलुहान मानवता एवं जटिल से जटिलतम होते जा रहे पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सामरिक समीकरणों से जीवन मूल्यों और संवेदनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में सहायता मिले। मेरे जैसा सामान्य पाठक पत्रिका से वर्ग संघर्ष, वर्ण संघर्ष, धार्मिक उन्माद, आतंकवाद, नारी स्वतत्रंता, दलित चेतना जैसे विषयों पर भी मुखर अभिव्यक्ति एवं चिंतन की अपेक्षा करता है। ऐसा लगता है कि संपादक ने कतिपय दबाव में कुछ अतीतजीवी रचनायें एवं स्तम्भ समायोजित किये हैं जिनमें न युगबोध है और न ही समकालीन साहित्य एवं समाज का परिदृश्य है।
विरासत एवं परम्परा का सम्मान करना हमारा नैतिक दायित्व है फिर भी अगर कोई पूर्वाग्रह न हो तो धरोहर कहानी का स्तम्भ नितांत अनावश्यक है। प्रबुद्ध पाठक प्रेमचन्द्र, प्रसाद, निराला, जैनेन्द्र, अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन जैसे विराट नक्षत्रों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रकाश में ही आगे बढ़ते हैं। ऐसी विभूतियों का सुपरिचित साहित्य छापने से पाठकों का पैसा बर्बाद होता है और पत्रिका के पन्ने। विशेष अवसर पर इनके अनछुये प्रसंग, संस्मरण, डायरी आदि का प्रकाशन अवश्य स्वागत योग्य है। जैसे 2008 में रामधारी सिंह दिनकर की जन्म शताब्दी थी, उन पर कुछ विशेष सामग्री श्रद्धा सुमन के रूप में छपनी चाहिए थी। प्रगतिशील कवियों की त्रयी ’केदार त्रिलोचन नागार्जुन’ की अंतिम कड़ी त्रिलोचन पिछले वर्ष ही बिखरी है। इनकी श्रद्धांजलि के रूप में इन पर विशेषांक या विशेष सामग्री का भरपूर स्वागत होता। इस संदर्भ में कुछ माह पूर्व ही निःशेष प्रभा खेतान को भी विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए। ये नारीवादी लेखन की एक पुरोधा रहीं हैं, श्रद्धांजलि स्वरूप इन पर विशेष सामग्री सहित नारीवादी लेखन विशेषांक निकाला जा सकता है।
रूपाली दास तिस्ता का ललित निबंध ‘आत्म संतुष्टि’ भावनात्मक रिश्तों की अनिवार्यता एवं गरिमा के बारे में सहज शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है। यही भावनात्मक रिश्ते जीवन मूल्यों को उदात्तता प्रदान करते हुए मानव जीवन को पूर्णता, संतुष्टि और सार्थकता प्रदान करते हैं। डा0 ब्रजेश कुमार की कविता ’अभिव्यक्ति’ में जिजीविषा का चरम है जो विषमतम परिस्थितियों में भी जीवन के प्रति आस्था को डिगने नहीं देता है। कीर्ति शेष युवा कवि हेमंत की कविता ’वह नन्हा’ बाल मजदूरी के अभिशाप का सटीक और यथार्थ चित्रण है। इसको पढ़कर मन में क्षोभ भी जागता है और आक्रोश भी; मन विचलित भी होता है और उद्वेलित भी। सामग्री के अभाव में किसी स्थापित कवि की कविता जैसे केदार नाथ अग्रवाल की ’बासंती हवा’ को स्थान दिया जा सकता था। इससे केन तट के प्रगतिशील सूफी कवि को श्रद्धांजलि हो जाती और बुन्देलखण्ड से प्रकाशित पत्रिका अपनी माटी के कर्ज से भी ऋण मुक्त हो जाती। सुधा भार्गव की ’बाल डायरी के कुछ पन्ने’ मन को छू गयी। इसमें माँ के प्यार को तरसते बच्चे की कोमल संवेदनाओं को बहुत मार्मिक ढंग से उकेरा गया है। इतनी अच्छी रचना लेखन के लिए सुधा भार्गव को बधाई। डा0 मधु संधु की कहानी ’संगणक’ शहरी परिवेश को लेकर लिखी गयी है। कहानी समसामयिक है और बहुत अच्छी बन पड़ी है। निर्मल कौर संधू का संस्मरण ’बचपन की मीठी यादें’ रोचक लगा।
कृष्ण कुमार यादव, डा0 हरि सिंह और चरण सिंह जादौन के आलेख पठनीय हैं। इनमें बाल लेखन की समस्याओं के बारे में कई तरह के सुझाव दिये गये हैं। आखिर इन सुझावों को कौन कार्यान्वित करेगा? आज की पीढ़ी का नया लेखक तो इंटरनेट से सामग्री डाउनलोड करता है। इसके बाद उसका लिप्यांतरण और थोड़ी सी फेर बदल करता है, लो हो गयी रचना तैयार। अगर ऐसा न भी हो तो भी आज का युवा लेखक कलम पकड़ते ही वैश्वीकरण और वैश्विक संस्कृति से ही लेखन की शुरूआत करता है। जिसमें मनुष्य सिरे से गायब रहता है। मनुष्य, मानवीय मूल्य, संवेदना, परिवार, समाज, प्रेम जैसे तत्व तो साहित्य की परिधि से लगभग निष्कासित ही हो चुके हैं। ऐसे में बाल साहित्य कहाँ ठहरेगा? बचपन और संस्कार बचाने की किसको चिन्ता है? इसके लिए हमें बंगाली भाषा के साहित्यकारों से शिक्षा लेनी चाहिए। बंगाली भाषा में परम्परा है कि साहित्यकार सबसे पहले बच्चों को संस्कारित करने के लिए बाल साहित्य लिखे और बाद में वह अन्य पाठक वर्ग के लिए लिखे।
सम्पादकीय पढ़ने से लगता है कि सम्पादक महोदय बाल साहित्य के भविष्य के प्रति काफी आशंकित हैं। काल चक्र, पूंजीवाद और वैश्विक संस्कृति का प्रभाव तो आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, सामरिक, फिल्म, साहित्य आदि हर क्षेत्र पर पड़ा है। दुनिया तो हमेशा ही बाजार से कमोवेश प्रभावित होती रही है लेकिन बाजारवाद आज जैसा हावी कभी नहीं रहा। ऐसे में बच्चे और बाल साहित्य इससे अछूते कैसे रह सकते हैं? आज का बच्चा प्रेमचन्द्र की ’ईदगाह’ के जमाने का भोला भाला बालक नहीं है और न ही उन्नीसवीं, बीसवीं शताब्दी की तरह कोरी स्लेट। जिसे परियों, जादूगरों, राजा-रानी, शेर-लोमड़ी की कहानी से भरमाया जा सके। आज का बच्चा पूर्ण जिज्ञासु होता है और तर्क की कसौटी पर कसकर ही कोई बात मानने को तैयार होता है। आज संवेदना, सहनशीलता, पारम्परिक रिश्तों की गरमाहट, साहस, वीरता, नैतिकता जैसे उदात्त जीवन-मूल्य बुजुर्गों के ही खून में शामिल नहीं हैं फिर ये गुण बच्चों की प्राथमिकता कैसे बन सकते हैं? अब आम वयस्क की भांति बच्चे भी क्रिकेट स्टार, फिल्म स्टार, अरबपति बनने के सपने देखते हैं। इस सुनियोजित व्यवस्था और सपनों की विरासत बच्चों को हमने ही तो सौंपी है फिर मूल्यों के क्षरण का स्यापा क्यों? नयी सदी के यक्ष प्रश्न तो हमारे ही खड़े किये हुए हैं फिर इनके उत्तर और समाधान कौन तलाशेगा? आज इक्कीसवीं सदी का बाल साहित्य कम्प्यूटर, इंटरनेट, रेडियो, टीवी, फिल्म, बाल पत्रिका आदि के माध्यम से कई आयामों में रचा जा रहा है और प्रसारित हो रहा है। अनेक बाल कथाकार, बाल कवि तथा बाल रचनाकार भी तैयार हो रहे हैं। यहाँ गीतिका सिंह, सुरम्य शर्मा, नूपुर शर्मा के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। जिन्होंने बाल्यकाल में ही बाल कहानियाँ और बाल कविता संकलन दिये हैं। बाल साहित्य के उत्थान के लिए अनेक सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थायें सराहनीय काम कर रही हैं। बाल साहित्य की विविध रोचक पत्रिकायें भी अच्छी सामग्री एवं साज सज्जा के साथ छप रहीं हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट की मासिक पत्रिका ’नया ज्ञानोदय’ एवं कई अन्य प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने विगत कुछ वर्षों में ही बाल साहित्य पर विशेषांक निकाले हैं। ऐसे में बाल साहित्य का परिदृश्य निराशाजनक नहीं कहा जा सकता बल्कि उसका स्वरूप आज के बच्चों की अपेक्षाओं एवं परिवेश के अनुसार बदल रहा है। बाजारवाद के भीषण आक्रमण के बावजूद सैकड़ों बाल साहित्यकार अपने ताप और संवेदना का सार्थक प्रयोग करके बाल साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्ति प्रदान कर रहे हैं।
अतीतजीवी बाल साहित्यकारों से ये अपेक्षा अनुचित नहीं कही जा सकती है कि वे आज के परिवेश, आवश्यकता और मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर साहित्य रचना करें ताकि वह आज के जागरूक बच्चों के लिए ग्राह्य एवं उपयोगी हो। जो लेखन वर्तमान में संदर्भ से कटा हुआ है और भविष्य में छलांग नहीं लगा रहा है, वह लेखन निरर्थक है; सिर्फ येन केन प्रकारेण छपने से यह मूल्यवान नहीं हो सकता।
गीताश्रम के सामने, अजनारी रोड नया रामनगर उरई जालौन) पिन-285001 |
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