ईदगाह
धरोहर कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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प्रेमचन्द
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आई है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है। वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है। आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुर्ते में बटन नहीं है। पड़ोस के घर से सुई-तागा लाने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गये हैं, उनमें तेल डालने तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैल को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगा। तीन कोस की पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना। दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिन्ताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खायेंगे। वे क्या जाने कि अब्बाजान क्यों बदहवास चैधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चैधरी आज आँखे बदल लें, तो वह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास, एक, दो, तीन, आठ नौ, पन्द्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगे- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या? और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता न चला क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है। और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपये कमाने गये हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं। इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा। उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर में एक पुरानी-धुरानी टोपी; जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती। इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इन निगोड़ी ईद को। इस घर में उसका काम नहीं; लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब! उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनन्द-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - तुम डरना नहीं अम्मां, मैं सबसे पहले जाऊँगा। बिलकुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है। उसे कैसे अकेले मेले जाने दे, उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान, तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में लेगी; लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा। पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिये थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए। लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती। हामिद के लिए कुछ नहीं है तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्योहार। अल्लाह ही बेड़ा पार लगाए। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आयेंगीं। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी की आँखों नहीं लगता। किस-किससे मुँह चुरायेगी और मुँह क्यों चुराए! साल भर का त्योहार है। जिन्दगी खैरियत से रहे, उसकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएंगे।
गाँव से मेला चला और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सब-के सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इन्तजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं! हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अन्दर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फलांग पर है। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है। बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे। सब लड़के नहीं हैं जी। बड़े-बड़े आदमी हैं सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछें हैं, इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं; बिलकुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लबघर में जादू होता है। सुना है यहाँ मुरदे की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अन्दर नहीं जाने देते। और यहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूंछो-दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं सच। हमारी अम्मा को वह दे दो, क्या नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क न जाएँ।
महमूद ने कहा-हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला-चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेंगी तो हाथ काँपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती है। पाँच घड़े तो भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़ा तो आँखों तले अंधेरा आ जाए।
महमूद-लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकती।
मोहसिन-हाँ, उछल-कूद नहीं सकती, लेकन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चैधरी के खेत में जा पड़ी थी, तो अम्मा इतनी तेज दौड़ी कि मैं उन्हें पा न सका सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकाने शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न एक-एक दुकान पर मनों होगीं। सुना है रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है वह तुलवा लेता है और सचमुच रुपये देता है, बिलकुल ऐसे ही रुपये।
हामिद को यकीन न आया-ऐसे रुपये जिन्नात को कहाँ से मिल जाऐंगे!
मोहसिन ने कहा-जिन्नात को रुपये की क्या कमी। जिस खजाने में चाहें, चले जायें। लोहे के दरबाजे इन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहिरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहिरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुच जाएँ।
हामिद ने फिर पूछा-जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते होंगे।
मोहसिन-एक-एक आसमान के बराबर होता है जी, जमीन पर खड़ा हो जाये तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाये।
हामिद-लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे वह मन्तर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूं।
मोहसिन-अब यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन चैधरी साहब के काबू में बहुत जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाये, चैधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम भी बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुये, कहीं न मिला। तब झक मारकर चैधरी के पास गये। चैधरी ने तुरन्त बता दिया कि मवेशीखाने में है, और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चैधरी के पास क्यों इतना धन है, और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यही सब कानिस्टबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाम को! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ।
मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिस्टबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर डाकू हैं, सब इनसे मिलते हैं, रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं कि चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिस्टबिल हैं। बीस रुपये महीने पाते हैं; लेकिन पचास रुपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम। मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रुपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे-बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाये।
हामिद ने पूछा-यह लोग चोरी करवाते हैं तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं? मोहिसन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे पागल, इन्हें कौन पकड़ेगा। पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं लेकिन अल्लाह इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर आग लग गई। सारी लेई-पूंजी जल गई। एक बर्तन न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाए तो बर्तन-भाड़े आये।
हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं।
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ।’
अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं। एक-से-एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तांगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थी। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा, ईदगाह नगर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था। लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, और फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनन्तता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानन्द से भर देती थीं। मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।
नमाज खत्म हो गई है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकानों पर धावा होता है। ग्रामीणों का वह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट छड़ों से लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक-तिहाई, जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधू। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं! अब बोलना ही चाहते हैं। अहमद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ी वाला कन्धे पर बन्दूक रखे हुए। मालूम होता है, अभी कवायद किये चला जा रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई, ऊपर मशक रखे हुए, मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है। शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक में पानी उड़ेलना चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्धता है उसके मुख पर। काला चोगा, नीचे सफेद अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए है। मालूम होता है, अभी किसी अदालत में जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे में खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने मंहगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग धुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के?
मोहसिन कहता है-मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा, सांझ सबेरे।
महमूद-और मेरा सिपाही घर पर पहरा देगा। कोई चोर आयेगा, तो फौरन बन्दूक से फैर कर देगा।
नूरे-और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी-और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।
हामिद खिलौने की निन्दा करता है-मिट्टी के ही तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विषेशकर जब अभी नया शौक हो। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन, किसी ने सोहनहलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है-हामिद, रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार हैं।
हामिद को संदेह हुआ, यह केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है; लेकिन यह जानकर भी उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन-अच्छा, अब की जरूर देंगे हामिद, अल्ला कसम ले जा।
हामिद-रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?
सम्मी-तीन ही तो पैसे हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
अहमद-हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहसिन बदमाश है।
हामिद-मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन-लेकिन दिल में कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद-हम समझते हैं इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती है तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होगी। फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में काम की चीज हो जायेगी। खिलौनों से क्या फायदा। व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। ये तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुसरत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूँछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा फोड़े फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जवान चटोरी हो जायेगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जवान क्यों खराब होगी! अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथों से ले लेगी और कहेगी-मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है। हजारों दुआयें देगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा। बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरन्त सुनी जाती है। मेरे पास पैसे नहीं है। तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनको मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ। मैं नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ। मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बा जान कभी-न-कभी आयेंगे। अम्मां भी आयेगी। फिर इन लोगों से पूँछूँगा। कितने खिलौने लोगे! एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है। यह नहीं कि पैसे की रेवड़ियाँ लो तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सब-के-सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा-यह चिमटा कितने का है।
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा-यह तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं!’
‘बिकाऊ क्यों नहीं! और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छः पैसे लगेगे।’
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक बताओ।’
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो?’
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा-‘तीन पैसे लोगे।’
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुनें। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दीं। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बन्दूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सब-के-सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं।
मोहसिन ने हँसकर कहा-यह चिमटा क्यों लाया पगले! इसे क्या करेगा!
हामिद ने चिमटे को पटककर कहा-जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायें बच्चा की!
महमूद बोला-यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद-खिलौना क्यों नहीं है? अभी कंधे पर रखा, बन्दूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ तो तुम लोगों के सारे खिलौने की जान निकल जाये। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है-चिमटा।
सम्मी ने खंजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला-मेरी खंजरी से बदलोगे। दो आने की है।
हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, डब-डब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया। लेकिन अब पैसे किसके पास धरे हैं फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ है, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो गया है। सम्मी तो विधर्मी हो गया। दूसरे पक्ष में जा मिला; लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है; वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए, तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायें, मियाँ सिपाही मिट्टी की बन्दूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर रुस्तमे-हिन्द लपककर शेर की गर्दन पर सवार हो जायेगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा-अच्छा पानी तो नहीं भर सकता।
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा-भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई-अगर बच्चा पकड़ जाये तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के ही पैरों पड़ेंगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जबाव न दे सका। उसने पूछा-हमें पकड़ने कौन आयेगा?
नूरे ने अकड़कर कहा-यह सिपाही बन्दूक वाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा-ये बेचारे हम बहादुर रुस्तमे-हिन्द को पकड़ेगे? अच्छा लाओ; अभी जरा कुश्ती हो जाये। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगे क्या बेचारे।
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई-तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग से जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजबाव हो जायेगा लेकिन यह बात न हुई हामिद ने तुरन्त जबाव दिया-आग में बहादुर ही कूदते हैं। जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लेडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है जो रुस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर और लगाया-वकील साहब कुर्सी-मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबर्चीखाने में पड़ा रहेगा।
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया। कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने। चिमटा बाबर्चीखाने में पड़े रहने के सिवा और क्या कर सकता है।
हामिद को कोई फड़कता हुआ जबाव न सुझा तो उसने धाँधली शुरू की-मेरा चिमटा बाबर्चीखाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए। मानों कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट कर गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसका पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रुस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद, नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारने वालों से जो सत्कार मिलना स्वाभाविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किये पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है खिलौने का क्या भरोसा? टूट-फूट जायेंगे। हामिद का चिमटा बना रहेगा, बरसों।
सन्धि की शर्ते तय होने लगी। मोहसिन ने कहा-जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें, तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।
हामिद को इन शर्तों के मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे-मैं तुम्हें चिढ़ा रहा था, सच। यह लोहे का चिमटा भला इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से सन्तोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन-लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा!
महमूद-दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मा जरूर कहेगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने तुम्हें मिले! हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौने को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होगी जितनी दादी चिमटे को देखकर होगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था और उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रुस्तमे-हिन्द है और सभी खिलौनों का बादशाह।
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद था।
ग्यारह बजे सारे गाँव में हलचल मच गई। मेले वाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहिन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जो उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर बहन-भाई में मारपीट हुई। दोनों खूब रोये। उनकी अम्मां यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।
मियाँ नूरे के वकील का अन्त उसके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में दो खूटियाँ गाड़ी गई, उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की पट्या और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो? कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायेगी कि नहीं। बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया। बड़े जोर-जोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया। लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो था नहीं, जो अपने पैरो चले। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उसके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरफ से ‘छोने वाले जागते रहो’ पुकारते हैं। मगर रात तो अंधेरी होनी ही चाहिए; महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिए जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है। महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिल गया है, जिसमें वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जोड़ दी जाती है, लेकिन सिपाही को ज्यों ही खड़ा किया जाता है, टाँग जबाव दे देती है। शल्यक्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टांग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टांग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपान्तर चाहो, कर सकते हो, कभी-कभी तो उससे वाट का काम भी लिया जाता है।
अब मियाँ हमीद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चैकी-‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है।’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिये।’
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा। सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं इसलिए मैंने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई-हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!