भिखारी बालक


लघुकथा / जुलाई-अक्टूबर 08
------------------------------------
ओमप्रकाश ‘मंजुल’



वह भिखारी बालक किसी भिखारी का ही बालक था, उसकी भाषा और भूषा दोनों से ही यह स्पष्ट आभास हो रहा था। कालेज से लौटकर आते समय मैंने उसे अपने पड़ोसी के दरवाजे पर भीख माँगते हुए देखा था। वह जाली वाले किवाड़ों से अन्दर झाँकते हुए कह रहा था,‘‘मोर माता! थोड़ा आटा दै देस’’ वह गोरा चिट्टा पर मैला-कुचैला था। बादामी रंग का फटा-गंदा कुर्ता और सिलाई उधड़ रहा सफेद चीकट पाजामा वाला यह अल्हड़ बालक बामुश्किल आठ वर्ष का रहा होगा, पर लम्बाई से दस-ग्यारह साल का लग रहा था। अमूमन मंगतों के बच्चे इतनी जल्दी-जल्दी नहीं बढ़ते, जितनी त्वरा से भारत की सामूहिक और सांविधिक पोल खोलने वाली यह कोमल काया बढ़ती दिखाई दी खैर.....।
घर आकर मैंने तेजी से बाहरी वस्त्र उतारे और हाथ, मुँह तथा पैर धो करके मुख्य द्वार के समक्ष वाले बरामदे में भोजन करने बैठ गया। मैं लगभग आधा भोजन कर चुका था तभी कानों में आवाज आई ‘‘माता! ओ मोर माता! थोरा आटा दै देस।’’ दरवाजे पर खड़ा वही लड़का टीन का कटोरा आगे बढ़ाये यह वाक्य कहे जा रहा था।
भिक्षा देने से पूर्व भिखारी की भिक्षाटन योग्य स्थिति का अवलोकन आकलन कर लेना मेरी आदत रही है। इसी वृत्ति की बाध्यतावश मैंने वहीं से उससे कड़ककर कहा, ‘‘अभी से भीख माँगने की आदत डाल रहा है, कोई काम-धाम नहीं किया जाता?’’ वह बोला, ‘‘बाबूजी! का करे? कुछ करै लाग जाई, ताबै पुलिस पकड़ै आ जाई।’’ यकायक मुझे 14 वर्ष से छोटे बच्चों द्वारा शारीरिक श्रम का संवैधानिक अपराध वाला सरकारी कानून याद आ गया। उस पर दया तो मुझे पहले ही उसके नाजुक बदन के कारण आ रही थी। मैं तो उसके सामने सख्त होने का मात्र स्वांग कर रहा था। मैंने पूछा, ‘‘बेटा! खाना खाओगे?’’ बोला, ‘‘हाँ।’’ पत्नी दो रोटियाँ और थोड़ी सी सूखी सब्जी उसके कटोरे में रख आई। चबूतरे पर उस समय कड़ाके की धूप थी और सामने सड़क पर कुछ उधर हटकर सामने के मकान की छाया पड़ी थी। पत्नी जब उसके कटोरे में भोजन रख रही थी तभी लड़के ने कातर दृष्टि से उनसे अनुमति माँगते हुए अनुनय की, ‘‘का वाहाँ छइयाँ मां ही बइठ जाये माता?’’ मानो सड़क और सड़क की छाया पर भी अमीरों का विशेषाधिकार हो, पत्नी द्वारा ‘बैठ जाओ’ कहे जाने पर उसने छाया में बैठकर बहुत धीरे-धीरे से रोटियाँ खाईं। एक तो, वह खा कम रहा था, भांैचक्का सा होकर सामने की बिल्डिंगों को गौर से देखे जा रहा था दूसरे आज के जमाने में बिना प्याज, लहसुन की सब्जी हम जैसे कुछ जानवर जैसे व्यक्ति ही खाते होंगे, हाई-फाई सोसाइटी में संभ्रांतजन नहीं। पत्नी ने उससे जब और रोटी लेने को पूछा, तो उसने असमर्थता व्यक्त कर दी और पानी पीकर आगे बढ़ने लगा। दो-चार कदम चलने के बाद वह मुड़कर फिर दरवाजे के सामने आ गया और बोला, ‘‘माता! कोई पैंट दे देई’’ पत्नी ने कहा, ‘‘रुको देख रहे हैं।’’ थोड़ी देर बाद अंदर से निकल कर दरवाजे पर जाकर उसने बालक से कहा, ‘‘बेटा! पैंट तो है, पर बड़ी है वे तुम्हें फिट नहीं होगीं।’’ यह सुनकर लड़का चला गया पर उसकी भाव मुद्रा से ऐसा नहीं लगा कि उसे पत्नी की इनकार बुरी लगी हो। लौटकर आती हुई बोली, ‘‘बेचारा बड़ा सीधा है।’’ मैंने कहा ‘‘निसंदेह, लगता है अभी भिक्षाटन का प्रशिक्षण ले रहा है। अगर थोड़ा भी टेंªड और चालाक होता तो बड़े भाई के लिए ही पैंट माँग लेता।



कामायनी,
मो0-कायस्थान पूरनपुर
(पीलीभीत) उ0प्र0

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

  © Free Blogger Templates Photoblog III by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP