लघुकथा

लघुकथा ======= मार्च - जून 06

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बदलाव
रश्मि दुबे
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मेरे आगे की सीट पर बैठा वह मेरी चेन और अंगूठी को ललचाई नजरों से देख रहा था। खुद को उस इलाके का ‘डान’ बताते हुये गालियों के द्वारा वह गाड़ी के लोगों को और शायद मुझे डराने का प्रयास कर रहा था। पन्द्रह दिन पहले ही जेल से छूटा हूँ ‘मर्डर के केस में’ कह कर स्वयं को ‘पक्का’ और भयंकर जताने की कोशिश में लगा हुआ था। ‘‘एक में अंदर हुआ तो एक और सही, कोई माई का लाल आंख उठाने की हिम्मत तो करे। .......पर सुधरना चाहिये आखिर घर-बार, बीवी-बच्चे हैं उनका भी तो ख्याल रखना है ......‘‘खुद ही बड़बड़ाता और बीच-बीच में अपनी हैवानियत की भी याद दिलाता जाता। मैंने उसकी आँखों में देखा और पढ़ने का प्रयास किया उसकी बैचेन आवाज को, जिसमें इस बात का स्पष्ट संकेत था कि बिना किसी जुर्म के हत्यारा बना देने पर आज स्वयं को हत्यारा महसूस कर रहा था वह !
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दोस्ती
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मैं अस्पताल में बैठी अपने पापा का इंतजार कर रही थी जो मेरी एक्सरे रिपोर्ट लेने गये थे। पास की कुर्सी पर मेरी हर उम्र लड़की शून्य में निहारती, आँखों में दिल का गुबार लिये बैठी हुयी थी। बहुत कोशिश की उससे बात करने की पर एक अजनबी से बात करने की हिम्मत न हुयी। फिर भी औपचारिकता के नाते मैंने उसके आने का कारण पूछा। जैसे वह इसी प्रतीक्षा में थी। उसकी आँखों की रक्तिम रेखायें और भी लाल हो गयीं। आँखों के रास्ते दिल का तूफान बह ही गया ‘‘मेरे पापा ........... आई. सी. यू. में भर्ती में है। एक्सीडेंट हो गया है। बैलेंस बिगड़ जाने से गाड़ी पुल पर लटक गयी। पापा ने गाड़ी को संभालते हुये एक-एक सवारी को नीचे उतारा और खुद फंस गये। उनके जरा भी हिलने पर गाड़ी नदी में गिरने लगती। जिनकी जान बचाई वे भी तमाशबीन बने रहे और अपने रक्षक की रक्षा न कर सके। जिंदगी और मौत के बीच झूलते पापा जैसे ही पीछे आये गाड़ी 25 फुट नीचे गहरी नदी में गिर गयी ....’’ कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी .... ‘‘सुनते ही मम्मी को अटैक पड़ गया। मेरे मम्मी और पापा दोनों इसी अस्पताल में है। छोटे भाई-बहन हैं, उन्हें संभालने के लिये मैं हिम्मत बाँधे हुये थी, तुमसे दिल की बात कह दी, दिल हल्का हो गया। सब ठीक तो हो जायेगा न ?’’ कहते हुये उसने मेरे हाथों पर हाथ रखा। उसकी आँखों के सागर की अथाह लहरें अब थमती नजर आ रही थीं। मैंने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों में थाम कर उसे साँत्वना दी। मैं कुछ कह पाती कि ‘‘दीदी ........पापा ......’’ सुनकर वह अंदर की ओर दौड़ी। एक पल को उसने पीछे मुड़कर देखा और जैसे मुझे धन्यवाद किया कि मैंने एक अच्छे दोस्त की भाँति उसके मन का बोझ उतारने में उसकी सहायता की। मैं मन ही मन उसके माता पिता के स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना कर दोस्ती की नई परिभाषा गढ़ने लगी।

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49/144, डी. डी. ए. फ्लैट्स दक्षिणपुरी, नई दिल्ली

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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