उसने कहा था
उसने कहा था
चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली की मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चैड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुये, इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की उँगलियों के पोरों को चीथकर अपने ही को सताता हुआ बताते हैं और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं; तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिये ठहरकर सब्र का समुद्र उमड़ाकर ‘बचो खालसाजी!’ ‘हटो माईजी !’ ‘ठहरना भाई !’ ‘आने दो लाला जी !’ ‘हटो बाछा !’ कहते हुये सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तखों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में राह खेते हैं। क्या मजाल है कि ‘जी’ और ‘साहब’ बिना सुने किसी को हटना पड़े ! यह बात नहीं कि इनकी जीभ चलती ही नहीं; चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -
‘हठ जा जीणे जोगिए; हट जा करमावालिए, हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा, लम्बी उमराँ वालिए !’’ समष्टि में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है ? .............. बच जा।
ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चैक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिये दही लेने आया था, और यह रसोई के लिये बड़ियां ! दूकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
‘‘तेरे घर कहां हैं ?’’
‘‘मगरे में; - और तेरे ?’’
‘‘माझे में; - यहां कहां रहती है ?’’
‘‘अतर सिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।’’
‘‘मैं भी मामा के यहां आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।’’
इतने में दूकानदार निबटा और इनको सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर पूछा-‘‘तेरी कुड़माई हो
गई ? ’’ इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहां, दूध वाले के यहां, अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई हो गई ?’’ और उत्तर में वही धत् मिला। एक दिन जब लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की सम्भावना के विरुद्ध बोली,-‘‘हां, हो गई।’’
‘‘कब ?’’
‘‘कल; देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ ‘साल’।’’
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन-भर कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उँडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
(2)
‘‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे-बैठे हड्डियां अकड़ गई। लुधियाना से दन गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुये हैं। गनीम कहीं दीखता नहीं,-घण्टे-दो-घण्टे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती हैं और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहां दिन में पच्चीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुये हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।’’
‘‘लहना सिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों ‘रिलीफ’ आ जायेगी, और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में मखमल की सी हरी घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं पर दाम नहीं लेती। कहती है तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो।’’
‘‘चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाये। फिर सात जर्मनों को अकेला मारकर न लौटूँ तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े-संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था-चार मील तक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो’’
‘‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते। क्यों ?’’ सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा-‘‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाई नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गये तो क्या होगा।’’
‘‘सूबेदार जी, सच है,’’ लहना सिंह बोला-‘‘पर करें क्या ? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के-से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाये, तो गर्मी आ जाये।’’
‘‘उदमी, उठ, सिगड़ी में कोयले डाल। वजीरा, तुम चार जने बाल्टियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दे।’’ यह कहते हुये सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भरकर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला-‘‘मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’’ उस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहना सिंह ने दूसरी बाल्टी भरकर उसके हाथ में देकर कहा-‘‘अपनी बादी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।’’
‘‘हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमाव जमीन यहीं माँग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।
‘‘अच्छा अब बोधा सिंह कैसा है ?’’
‘‘अच्छा है।’’
‘‘जैसे मैं जनता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने दोनों कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है मौत है, और निमोनियां से मरने वालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’’
‘‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरत सिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुये आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी।’’
वज़ीरा सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कर कहा-‘‘क्या मरने-मारने की बात लगाई
है ? मरे जर्मन और तुरक ! हां भाइयो, कैसे ........’’
सारी खन्दक गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
(3)
दो पहर रात गई। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधा सिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने कम्बल बिछाकर और लहना सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़कर सो रहा है। लहना सिंह पहरे खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर। बोधा सिंह कराहा।
‘‘क्यों बोधा भाई, क्या है ?’’
‘‘पानी पिला दो।’’
लहना सिंह ने कटोरा उसके मुँह में लगाकर पूछा-‘‘कहो कैसे हो ?’’
पानी पीकर बोधा बोला-कँपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।’’
‘‘अच्छा मेरी जरसी पहन लो।’’
‘‘और तुम ?’’
‘‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है, पसीना आ रहा है।’’
‘‘ना, मैं नहीं पहनता; चार दिन से तुम मेरे लिये .......’’
‘‘हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। विलायत से मेंमे बुन-बुनकर भेज रही हैं। गुरू उनका भला करे।’’ यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।
‘‘सच कहते हो।’’
‘‘और नहीं झूठ !’’ यों कहकर नाहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता-भर पहनकर पहरे पर जा खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई-‘सूबेदार हजारा
सिंह ?’’
‘‘कौन लपटन साहब ? हुकुम हुजूर !’’ कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
‘‘देखो इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई हैं। उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनमें जा मिलो। खन्दक छीनकर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’’ ‘‘जो हुकुम।’’
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतारकर चलने लगा, तब लहना सिंह ने उसे रोका। लहना सिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहना सिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना नही चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्हांेंने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा-‘‘लो, तुम भी पियो।’’
आँख मारते-मारते लहना सिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपाकर बोला-‘‘लाओ साहब !’’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में कहाँ उड़ गये और उनकी जगह कैदियों से कटे हुये बाल कहाँ से आ गये ?
शायद शराब पिये हुये हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है। लहना सिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
‘‘क्यों साहब हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?’’ ‘‘लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं ?’’
‘‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ ? याद है पारसल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे-हाँ-हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था ? बेशक पाजी कहीं का !’-सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा आता हैं। क्यों साहब ! शिमले से तैयार होकर उस नीलगाय का सिर आ गया था न ? आपने कहा था कि रेजिमेंट की मैस में लगायेंगे। हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया !’-ऐसे बड़े-बड़े सींग ! दो-दो फुट के तो होंगे ?’’
‘‘हाँ लहना सिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया ?’’
‘‘पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ।’’-कहकर लहना सिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिये।
अँधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
‘‘कौन ? वजीरा सिंह ?’’
‘‘हाँ क्यों लहना ? क्या कयामत आ गई ? जरा तो आँख लगने दी होती !’’
(4)
‘‘होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहनकर आई है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये है। उनकी वर्दी पहनकर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता हैंः पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।’’
‘‘तो अब ?’’
‘‘अब मारे गये। धोखा। सूबेदार होराँ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आएँ। खन्दक की बात झूठ हैं। चले जाओ। खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।’’
‘हुकुम तो यह है कि यही ........’’
‘‘ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम-जमादार लहना सिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।’’
‘‘पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।’’
‘‘आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिक्ख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।’’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर रखने वाले थे ........
बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठाकर लहना सिंह ने साहब की कोहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी लहना सिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा। और साहब ‘आँख ! मीन गौट्ट।’’ कहते हुये, चित हो गये। लहना सिंह ने तीनों गोले बीनकर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफ और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहना सिंह हटकर बोला-‘क्यों लपटन साहब ! मिजाज कैसा है ? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिक्ख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती है और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये ? हमारे लपटन साहब बिना डैम के पांच लफ्ज़ भी नहीं बोल सकते थे।’
लहना ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानों जाड़े से बचने के लिये दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहना सिंह कहता गया-‘चालाक तो बड़े हो, पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा हैं उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुये एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों के बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चैधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पण्डित हैं। वेद पढ़-पढ़कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नही मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गौ हत्या बन्द कर देंगे। मण्डी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपया निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाकबाबू पील्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूँड़ दी थी और गाँव से बाहर निकलकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो ..........
साहब की जेब से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपाल क्रिया कर दी। धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया-‘क्या है ?’
लहना सिंह ने उसे यह कहकर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया ‘और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों ओर पट्टियां बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्ठियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे से रोका, दूसरे को रोका, पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक तककर मार रहा था-वह खड़ा था, और सब लेटे हुये थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुस आते थे। थोड़े से मिनटों में वे ........
अचानक आवाज आई-‘‘वाह गुरूजी दी फतह ! वाह गुरूजी दा खालसा !!’’ धड़ाधड़ बन्दूकों से फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन चक्की के दो पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और-अकाली सिक्खाँ दी फौज आई ! वाह गुरूजी दी
फतह ! वाह गुरूजी दा खालसा !! सत्श्री अकाल पुरुख !!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गई। लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी, उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव-भारी घाव-लगा है।
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था-ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरा सिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन-भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मर जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाइ्र वालों ने सुन ली थी। उन्होंने टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जायेंगे, इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गई। सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बँधवानी चाही, पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। बोधा सिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा-‘‘तुम्हें बोधा की कसम हैं, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।’’
‘‘और तुम ?’’
‘‘मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुर्दो के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ ? वजीरा सिंह मेरे पास है ही।’’
‘‘अच्छा, पर’’
‘‘बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला ! आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्टी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा-‘‘तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा ? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना, उसने क्या कहा था ?’
‘‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना। गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया।-‘‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।
(5)
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिलकुल उन पर से हट जाती हैं।
लहना सिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जी वाले के यहाँ, हर कहीं उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता हैं, तेरी कुड़माई हो गई ! तब ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा-‘‘हाँ, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू ?’’ सुनते ही लहना सिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
‘‘वजीरा सिंह, पानी पिला दो।’’
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पच्चीस वर्ष बीत गये। आज लहना सिंह नं. 77 रैफल्स में जमादार हो गया। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेण्ट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुये हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहना सिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़े में से निकलकर आया। बोला-‘‘लहना ! सूबेदारनी तुझको जानती हैं, बुलाती हैं। जा, मिल आ।’’
लहना सिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं ? कब से ? रेजिमेण्ट के क्वार्टरों में कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर ‘मत्था
टेकना !’ कहा। असीस सुनी। लहना सिंह चुप।
‘मुझे पहचाना ?’
‘‘नहीं।’’
‘‘तेरी कुड़माई हो गई-धत्-कल हो गई-देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू-अमृतसर में-’’
भावों की टकराहट से मूछाँ खुली। करवट बदली, पसली का घाव बह निकला।
‘वजीरा पानी पिला।’ ‘उसने कहा था।’
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स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है-‘‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गये। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती ? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।’’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग्य ! तुम्हें याद है, एक दिन टाँग वाले का घोड़ा दही वाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातों में चले गये थे और मुझे उठाकर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’’
रोती-रोती सूबेरदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोछता बाहर आया।
‘वजीरा सिंह, पानी पिला’-उसने कहा था।’
लहना का सिर गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध-घण्टा तक लहना चुप रहा, फिर बोला-‘‘कौन ! कीरत सिंह ?’’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा-‘‘हाँ।’’
‘‘भइया, मुझें और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।’’
वजीरा ने वैसा किया।
‘‘हाँ अब ठीक है। पानी पिला दे। बस अबके हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यही बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।’’
वजीरा सिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे।
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कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा-फ्रांस और बेल्जियम, 68वीं सूची-मैदान में घावों से मरा-नं. 77 सिक्ख राइफल्स जमादार लहना सिंह।
(कहानी विविधा, सं - डाॅ। देवी शंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन से साभार)