विद्यापति का आधुनिक युग को संदेश
विद्यापति का आधुनिक युग को संदेश
दुर्गाप्रसाद श्रीवास्तव
विद्यापति श्रृंगार के चतुर चितेरे के रूप में ख्यात हैं। उनके श्रृंगार-सरोवर में भक्ति के सरोज भी यत्र-तत्र खिल रहे हैं। भक्ति और श्रृंगार का ऐसा संगम अन्यत्र दुर्लभ है। श्रृंगार की उत्तुंग शिलाओं में लुकती-छिपती भक्ति की अन्तः सलिला जीवन-संध्या के तट पर आकर भागीरथी का जो रूप धारण कर लेती है, उसका पावन जल भक्ति और रीतिकाल के अनेक कवियों के काव्य-घटों में छलकता हुआ दिखाई पड़ता है। भक्ति और श्रृंगार की गंगा-यमुना के एक साथ दर्शन हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम विद्यापति के काव्य में ही होते हैं। ‘गीत गोविन्द’ संस्कृत की कृति है। अतएव भक्ति और श्रृंगार के समन्वय का उद्गम ‘पदावली’ में ही माना जायेगा। विद्यापति जैसा मानव मन का पारखी कवि शायद ही कोई मिले। पाठक को पता ही नहीं लगता कि वह श्रृंगार-सरिता में डूबते उतराते भक्ति के सुरम्य तट पर कब आकर खड़ा हो जाता है। श्रृंगार की माधवी-लताओं के बीच भक्ति की वल्लरी किस प्रकार लहलहाती रही, इसका आकलन अभी अधूरा है अर्थात् विद्यापति की भक्त्यात्मक चेतना का विकास अभी गवेषणीय है। उन्होंने वैभव और विलास की भूमि पर भक्ति का वट कैसे उगाया, यह रोचक अनुसंधेय विषय है। यह हमारा प्रतिपाद्य नहीं। इस अनुच्छेद में हमारा अभीष्ट इतना ही है कि विद्यापति के अधिकांश पाठक उन्हें भक्त या श्रृंगारी कवि के रूप में ही जानते हैं और यह सत्य भी है। उनका काव्य-प्रासाद वैभव-विलास की आधार-शिला पर खड़े होकर भक्ति और अध्यात्म की ऊँचाईयों का स्पर्श करने लगता है।
इस प्रकार आधुनिक भौतिकवादी युग में इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न सूचक चिन्ह लग जाता है। मानवीय भावनाओं की रमणीय अभिव्यक्ति होने से विद्यापति का काव्य अप्रांसगिक कभी नहीं हो सकता। कर्म की ऊँची चट्टान पर चढ़ते-चढ़ते व्यक्ति जब थक जाता है, तब वह इसी स्रोत के समीप आकर श्रम-परिहार करता है; आगे के कर्मों के लिये यहीं से नयी ऊर्जा प्राप्त करता है। भौतिकवादी युग में कविता की प्यास और भी अधिक बढ़ जाती है। मानव-भावों का नत्र्तन भी इसी प्रांगण में देखने को मिलता है। इस रूप में विद्यापति की कविता सदैव ताजी रहेगी। उसकी नित-नूतनता असंदिग्ध है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ सार्वभौम होता है। जो साहित्य केवल जातीय या युगीन परिस्थितियों के खाद्य से पोषित होता है, वह अधिक दिन तक जीवित नहीं रहता। विद्यापति के काव्य में एक ओर उनका समाज और युग बोल रहा है, तो दूसरी ओर सार्वभौम भावनाओं के स्वर फूट रहे हैं। ‘पदावली’ में चित्रित समाज उच्चवर्गीय है, तत्कालीन सामान्यजन के चित्रण का वहाँ अभाव है। उसे जनवादी काव्य कहना कठिन है। राजसी-सामंती काव्य के कोने में जनवादी भावना भी कुण्डली मारे बैठी है, इस ओर कम ही पाठकों का ध्यान गया है। लोक-चेतना या युग-बोध की क्षीण रेखाओं की ओर ध्यान देने वाले पाठक कम ही हैं। इस लघु लेख में विद्यापति के एक ऐसे ही पद की ओर संकेत मात्र करना हमारा अभीष्ट है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, भोग-योग, प्रेय-श्रेय, लोक-परलोक, धरती-आकाश, व्यष्टि-समष्टि का समन्वय भारतीय साधना का वैशिष्ट्य रहा है। विद्यापति का काव्य भी इसी सामंजस्य का प्रतीक है। उनका राधा-कृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार ईरानी प्रेम की औपवनिक ऐकान्तता का स्मरण कराता है, पर शिव-पार्वती के प्रेम में राम-सीता के भारतीय अनुराग की झलक मिलती है। इस प्रेम से कर्म-क्षेत्र का कण-कण भास्वर हो उठता है; तृण-तृण स्पन्दित होने लगता है। ईरानी प्रेम की औपवनिक ऐकान्तता का स्मरण कराता है, पर शिव-पार्वती के प्रेम में राम-सीता के भारतीय अनुराग की झलक मिलती है। इस प्रेम से कर्म-क्षेत्र का कण-कण भास्वर हो उठता है; तृण-तृण स्पन्दित होने लगता है।
सक्रियता चेतना तथा निष्क्रियता जड़ता कही जाती है। प्रथम की कुक्षि से सम्पन्नता और द्वितीय के गर्भ से विपन्नता का जन्म होता है। सम्मान का शिशु सम्पन्नता की गोद में ही खेलता है। विपन्नता के मंच पर असत्कार का ताण्डव होता है। इस सत्य का उद्घाटन पार्वती के शब्दों में द्रष्टव्य है:-
‘‘बेरि बेरि अरे सिव, मों तोय बोलों,
फिरसि करिय मन माय।
बिन संक रहह, भीख मांगिए पय,
गुन गौरव दुर जाय।
निरधन जन बोलि सब उपहासए,
नहि आदर-अनुकंपा।
तोहे सिव, आक-धतुर-फुल पाओल,
हरि पाओल फुल चंदा
खटंग काटि हर हर जे बनाबिय,
त्रिसुल तोड़िय करु फार।
बसहा धुरंधर हर लए जोतिए,
पाटए सुरसरि धार।।
भन विद्यापति, सुनहु महेसर,
इ लागि कएलि तुअ सेबा।
एनए जे बर, से बर होअल,
ओतए जाएब जनि देबा।।’’
(विद्यापति: संपादक - डॉ0 मनोहर लाल गौड़, पद 14)
विद्यापति का यह संदेश तत्कालीन वैभव-विलासोद्भूत जड़ता को दूर करने वाला ही नहीं, अपितु निवृत्ति को प्रवृत्ति की ओर मोड़ने वाला है। कोरा वैराग्य-तप जीवन का सत्य नहीं। जीवन का एक पक्ष योग है, तो दूसरा भोग। एक चेतन है, तो दूसरा जड़; एक निष्क्रिय है, तो दूसरा सक्रिय। एक को पुरुष कहते हैं, तो दूसरे को प्रकृति। वेदांत इन्हें ब्रह्म और माया के अभिधान प्रदान करता है। शिव-पार्वती इन्हीं पक्षों के द्योतक हैं। शिव निवृत्ति के प्रतीक हैं तथा पार्वती प्रवृत्ति की द्योतिका हैं। वे शिव के लिये कर्म की प्रेरणा-स्रोत हैं। भारतीय प्रेम कर्म का प्रेरक रहा है। पत्नी अपने पति के अस्तित्व को अपनी श्रृंगार-मंजूषा में बन्द नहीं रखना चाहती। भारतीय दाम्पत्य प्रेम की ज्योति से लोक-मंगल का कोना-कोना आलोकित हो उठता है। उक्त पद में इसी प्रेम का प्रदीप प्रज्वलित किया गया है। विद्यापति के युग से लेकर आज तक इसकी शिखा निष्कंप भाव से जागरित है आगे भी इसी प्रकार जलती रहेगी। निष्क्रिय तप, वैराग्य एवं अध्यात्म का विरोध आधुनिक बोध के नाम से अभिहित किया जाता है। मध्यकाल में आधुनिक चेतना की अभिव्यक्ति विद्यापति की असामान्य प्रतिभा की द्योतिका कही जा सकती है। भिक्षा-वृत्ति और अकर्मण्यता की निन्दा जैसे आज की जाती है, वैसे ही मध्यकाल में भी की गई। विद्यापति के बाद रहीम ने भी ऐसी ही बात कही-‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जायँ।’विद्यापति इस कटु सत्य से परिचित थे कि सभी गुण कांचनाश्रित होते हैं-‘सर्वेः गुणाः का×चनमाश्रयन्ति।’ जो लोग आधुनिक युग को अर्थ-युग कहते हैं, उन्हें विद्यापति के इस पद को अवश्य देखना चाहिये। आर्थिक युग का स्वर इस पद में पहले से ही मुखर है। ऐसा लगता है कि कवि की प्रतिभा ने इस युग के दर्शन 600 वर्ष पूर्व कर लिये थे। प्रगतिवादी या माक्र्सवादी कवि अपने काव्य के बीज यहाँ ढूँढ़ सकते हैं। उन्हें यहाँ भी पूँजीवाद की गंध आ सकती है, क्योंकि वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा वर्ग की प्रभुता एवं पूंजी का समान वितरणादि प्रगतिवादी विशेषताओं का उल्लेख इस पद में नहीं हो सका है। उन्हें प्रगतिवाद की दो विशेषतायें तो मिल ही जायेंगी-भिक्षा-वैराग्य का विरोध तथा श्रम का महत्व। श्रम का महत्व कृषि-प्रधान भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि की उर्वरा कल्पना की भूमि में भारतीय संस्कारों के बीज काव्य-रूप में स्वतः अंकुरित हो उठे हैं। दरबारी वातावरण की श्रृंखला में जकड़ी हुई प्रतिभा का इतना जनवादी होना विस्मयकारी प्रतीत होता है।
पार्वती का ‘कान्तासम्यित उपदेश’ है कि शिव खटंग को काट कर हल बनायें, त्रिशूल को तोड़कर फार (हल का फल) बना लें और अपने वाहन वृषभ पर इस हल को रखकर भूमि का कर्षण करें (जोतें) तथा जटाओं में प्रवहमान सुरसरि की धारा से उसका सिंचन करें। इसी कामना-पूर्ति के लिये उन्होंने ने पति-सेवा की है। अ-कर्मण्यता से इस बार जो हुआ सो हुआ अर्थात् लोक बिगड़ा, पर वे परलोक नहीं बिगड़ने देंगी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कर्म से लोक-परलोक दोनों बनते हैं और अ-कर्म से दोनों बिगड़ जाते हैं।
इस प्रकार विद्यापति कर्मठता पर सर्वाधिक बल देते हैं। यहाँ परोक्षतः गीता का संदेश ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ प्रतिध्वनित है। तुलसी भी इसी मत के पोषक हैं-‘करम प्रधान बिस्व करि राखा।’ सरदार पूर्ण सिंह ने ‘मजदूरी और प्रेम’ शीर्षक निबन्ध में निठल्ले पादड़ियों, पुजारियों और मौलवियों की खिल्ली उड़ाई है और मजदूरों में परमात्मा के दर्शन करने को कहा है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी अपनी एक कविता में भजन गाने, माला फेरने तथा नेत्र बन्द कर ईश्वर का ध्यान करने की आलोचना की है तथा भगवान के दर्शन श्रमिक में प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
शिव-पार्वती का प्रेम कर्म से पलायन का संदेश नहीं देता। यह कर्मोन्मुख है। शिव को अपने रूप में देखने वाले कृषक से बढ़कर शिव का भक्त कौन हो सकता है ? कृषक जीवन के ऐसे रम्याद्भुत चित्र लोक-गीतों में मिलते हैं। रामनरेश त्रिपाठी ने ‘कविता-कौमुदी (भाग-1)’ में ऐसे कई लोक गीतों का संग्रह किया है, जिसमें राम खेतों को जोत कर संध्या-काल घर लौटते हैं, सीता बैलों का जुआ खोलती हैं, बैलों के लिये सानी करनी हैं। गुप्त जी इससे भी आगे बढ़ जाते हैं:-
‘‘अंचल-पट कटि में खोंस, कछोटा मारे,
सीता माता थीं आज नई धज धारे।
अंकुर-हितकर थे कलश-पयोधर पावन,
जन-मातृ-गर्वमय कुशल वदन भव-भावन।’’ (साकेत, अष्टम सर्ग, पृ. 221)
पर्णकुटी के वृक्षों को सींचने वाली सीता जड़ी भूत पदार्थों तक में कर्म की प्रेरणा जागरित कर सकती हैं, मनुष्यों की बात ही क्या है ?1
लोक-हित की वेदी पर वैयक्तिक कुशल-क्षेम का बलिदान तथा दुःखियों के प्रति सहानुभूति आधुनिक प्रेमिकाओं की प्रमुख विशेषतायें हैं। गुप्त जी की उर्मिला तथा हरिऔध की राधा में ऐसी ही भावनायें मिलती हैं। ‘हरिऔध’ की राधा अपने प्रियतम को लोक मंगलोन्मुख कर्म की वैसी ही प्रेरणा देती हुई दिखाई पड़ती हैं, जैसी विद्यापति की पार्वती ने शिव को दी है-
‘प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवें।’ (प्रिय-प्रवास)
विद्यापति की पार्वती का कर्म-प्रेरक रूप ‘प्रसाद’ की ‘श्रद्धा’ में प्रतिबिम्बित प्रतीत होता है:
‘‘एक तुम, यह विस्मृत भू-खण्ड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद;
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।’’
x x x x x
‘‘बनो संसृति के मूल रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी यह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाय,
सुमन के खेलो सुन्दर खेल।’’ (कामायनी, श्रद्धा सर्ग)
‘सुमन के खेल’ रचनात्मक कर्मों के प्रतीक हैं। श्रद्धा मनु को रचनात्मक कर्म करने की प्रेरणा देती है। इन्हीं कार्यों से सृष्टि रूपी लता विकसित होती है। कर्मों के संपादन से ही सृष्टि का विकास संभव है।(2)
इस प्रकार विद्यापति आधुनिक कवियों के साथ बैठे हुये दिखायी पड़ते हैं। भारत कृषि-कर्म से ही सम्पन्न हो सकता है। मनुष्य को अपनी शक्ति कृषि-सम्बन्धी श्रम में ही लगानी चाहिये। कर्म ही पूजा है - विद्यापति निठल्ले योगियों, साधुओं एवं सन्यासियों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। साहित्यकार के जिस दायित्व की आज कल अधिक चर्चा की जाती है, वह विद्यापति के एक विशिष्ट पद में पहले से विद्यमान है। वे अपने पाठकों को काम की कुत्सित-अकुत्सित गलियो में घुमा-फिराकर लोक-मंगलाभिमुख कर्म की भूमि में ले आते हैं।
27 हजारीपुरा, उरई (उ0 प्र0)