आलेख -- डॉ0 लखनलाल पाल -- डॉ0 हरगोविन्द सिंह और सदविचार सतसई
जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- आलेख-डॉ0 लखनलाल पाल डॉ0 हरगोविन्द सिंह और सदविचार सतसई |
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डॉ0 हरगोविन्द सिंह बुन्देली के मूर्धन्य विद्वान हते। उन्नैं बुन्देली काव्य खें एक नओ आयाम दओ। उनकी बुन्देली आमजन की बोली आय। लोक ब्यौहार में प्रयोग होन बाली बोली खें उन्नै अपने काव्य कौ साधन बनाओ। उनकी बुन्देली लुधियांती बोली के अन्तरगत आउत। डॉ0 हरगोविन्द सिंह के हातन लिखी ‘सद्विचार सतसई’ पूरी तरां सें लोक जीवन में होन वाली घटनाओं एवं आदमी के कार्य व्यौहार कौ दस्तावेज है। शब्दन कौ चयन भाव एवं भाषा मन खें खुश कर देत। सही अरथ में सद्विचार सतसई लोक जीवन कौ ऐना है, जेमें हम अपनौ मूँ दिखखें कभऊँ हँसत है, कभऊँ दुखी होत है, और कभऊँ खरौ खरौ साँच पढ़खे अवाक् रह जात...स्तब्ध रह जात। ‘सद्विचार सतसई’ खें कवि ने असाध बीमारी (केंसर) सें जूझखें रची ती। उन्नै एक-एक शब्द खें माला में गूँथ खें दोहा और सोरठा छन्द में पाठकन के सामूँ प्रस्तुत करी। सद्विचार सतसई में सात सै (700) दोहा और सोरठा छन्द हैं। जैमें दोहन की संख्या जादा है। ई ग्रन्थ में सैतीस (37) सर्ग हैं। जिन्हें कवि ने ‘विचार’ नाम दओ है जैसें अन्तिम यात्रा विचार, काल विचार....। समास शैली में लिखे जे दोहा, सोरठा सूधी हिरदै से सम्परक साधत। पूरी बात तनक से दोहा में कह दई। हमाए समाज में सरग और नरक की न जानें कित्ती सपनीली कल्पनाएं करी गई हैं। हम सपनन में इत्ते डूब जात हैं कि सचाई का है, पतई नहीं चलत। हमनै सचाई खें पूरी तरां से नकार दओ। कवि ने ई दोहन के माध्यम से खरी सचाई कौ ऐसौ चित्र खींच दओ कि एमें तरक-कुतरक की कहूँ गुंजाश नईं दिखात, जैसे जामें देख लेओ-
जिनखें अपने जिलईं कौ, नहियाँ पूरो ज्ञान।
स्वर्ग-नरक कौ हाल वे, बैठे करत बखान।।
जाके अलावा औरउ भी -
सोधी औरन की बिदा, लगन महूरत बार।
जब आई अपनी घरी, कढ़ गए बिनइँ बिचार।।
संग उड़न सब कहत ते! जहाँ किराओ जंट।
बिना किराओ जब उड़े, रह गए सबरे संट।।
आज हमने बहुत तरक्की कर लई। जहाँ हम कई बीमारियन सें बहुत जल्दी निजात पा जात, वहीं अपने बाहन से समैं की खूब बचत कर लेत पै समैं की अतिशै बचत या नई गाड़ी के सौक में अक्सीडेन्ट कर बैठत। ऊ खुद तौ घायल होत है, दूसरनऊ खें घायल कर देत। अक्सीडेन्ट में बहुतक मरऊ जात। कवि खें कौन्हऊ स्कूटर वाले ने धक्का मार दओ तो सो उनकी या आपबीती -
उभिड़त-कुचरत भगत है, दिखत न बूढौ ज्वान।
सबसें मोहराँ जाँय खें, फरफरात श्रीमान्।।
इतने सूटें न भगौ, दिखत- सुनत कछू जाव।
सबखें जानै है उतईं, जादा न अकुलाव।
ई संसारी में लोग तनिक-तनिक सी बात पै एक दूसरे सें ऐंठ जात। दूसरन खें सताउत। घमंड के मारें आदमी कछू कौ कछू कर डारत। वे सब यौं नई जानत आय कि यौ रैबाड़ौ छनिक देर कौ है। अंत समैं में तौ मुठी भर राख बचत है -
सेंटत ना ते काऊ खें, तिंदुआ घाईं गंगात।
ऐंठत ते जुन मूँज से, दिखे बुझे उतरात।।
मचकत फूँसत फिरत जुन, लटी तरेरत आँख।
दिख-दिख उनके ढंग हँसत खुंदी मुठी भर राख।।
जिनखें धरती पै इतै, रहनै दिन दो चार।
वे बलि के बुकरा फिरै, छुट्टा करत उजार।।
और भी-
सुनत हते रावन रहो, पाटी बाँधें काल।
कसैं कलाई में इतै, तेऊ न समझत चाल।।
कवि ने समाधान सुझाओ-
ढोल बजाकैं मूँड़ पै, करत मुनादी रोग।
छिन भगुंर है देह या, करौ सही उपयोग।।
कवि ने भीतर-बाहर खूबई ताक-झाँक करी। उनके अनुभौ में गहराई है। उनकौ अनुभौ मात्र सुनो सुनाओ या किताबन के ज्ञान लौ सीमित नहियाँ बलखें व्यष्टि से समष्टि लौं कौ है। जहाँ बूढन खें रुपइया पइसन में अधिक आसक्ति बढ़ जात, वहीं वे अपने परिवार के बढ़ैं की बरोबर कामना करत रहत। बहुएँ -लरका उनके उपदेशन सें पक जात। कवि ने उनकी मनःस्थिति खें ई शब्दन में व्यक्त करो -
थको डुकर कौ बोल, प्रान, तिजोरी में धरे।
चाबी लेव थतोल, लै न जाय लरका बहू।।
बब्बा खें रढ़ना परी, पन्ती दिख लेवं और।
किसमिसात बहुएँ उतै, कभै रीच है पौर।।
बूढ़े न जानै कितनी अभिलाखाएं पालै रहत। वंशवृद्धि खें दिखखें वे सुख कौ अनुभौ करत। स्यात कभऊँ वे मरें के सौ साल बाद लौट आवै तौ का उनकौ परिवार उन्हें चीन्ह लैहे?
मरे बाद सौ साल में, स्यात प्रकट हो जाव।
चीन्ह न पाहै घरई के, सब कहहैं को आव।।
जिनके लाने मर गए, जोरत धरत कमात।
वे पन्ती सन्ती करत, कभऊँ डुकर की बात।।
मरे की बातें सुने सें या लेख आदि पढ़खें आदमी कौ मन उचट जात पै कवि ने ई अटल सत्य खें ई ढंग से हमाए सामूँ धरो कि हम बड़ी आसानी से समझ लेत और उनके काव्य-सौन्दर्य में रंग जात। या कवि की अपनी विशेषता है-
मरे बाद कौ हाल का, कोउ कैसें समझाय।
सही पता ओखें चलै, जो खुद सरगै जाय।।
मरे बाद की गति सही, कैसें कोउ कह देय।
अनदिक्खा बेतुक झड़ै, दिक्खा साँस न लेय।।
या संसारी बाहरी चमक-दमक दिखत। आवरण सत्य खें ढाँक लेत। जब सत्य सें परदा उघरत तब असल बात समझ में आउत-
रीझट दुनिया झूठ पै, दिखखें बड़ौ प्रचार।
भेंट सत्य सें होत जब, ठोंकन लगत कपार।।
भड़भड़ात है पाप, लख उखरत साँची बात।
बकत उभाड़ी धर भगत, फट्टे करत बिलात।।
कवि डार्विन के दर्शन ‘विकासवाद’ से पूरी तरां से प्रभावित जान परत है। कवि के काव्य में ई दर्शन की छटा बड़ी भली लगत। मानुष कौ क्रमिक विकास भओ है यौ दर्शन डार्विन ने दओ। ओई के सिद्धान्त खे लैखें यो दोहा-
बनो अमीबा से मनुज, करकैं कृमिक विकास।
एक और सीढ़ी चढ़ै, फैलै आत्म प्रकास।।
नातौ बंदरन से जुरो, तौ लौ ओछी दौर।
जब नतैत असली मिलै, तब मति की गति और।
बनत-बनत पसु सें मनुज, लगे करोड़न साल।
ज्यों कौ त्यों ओखें करत, पतित बुद्धि कौटाल।।
आज कौ मनुष्य प्रगति कौ दंभ भर रहो है। ओनै अपने सुख के सब सामान जुटा लए। अब ओखें काऊ कौ भै नहियाँ। पै ई मानुष ने अपनी कुबुद्धि सें ऐसे-ऐसे हतयार बना लए कि सृष्टि तनकई देर में साफ हो जाये। अभऊँ ऊ अपनी मौत कौ सामान इकट्ठौ करत जा रओ। अब तौ आदमी आदमी से डिरान लगो। कवि ने ई बात खें ऐसें कहो-
नाहर तेंदू रीछ सें, नई, इंसान डिरात।
अब तौ अपनई जात खें, दिख हरकत बघवात।।
धरती धांसन टैंक ये, राकेट बम्ब बिमान।
है सब अपनई बंस सैं, निपटै कौ सामान।।
धरम के नाव पै आदमी खें पूरी तरां से बाँध दओ जात। तीन तोफान में न परत बालें आदमी के लानै ये धरम के ठेकेदार गरबंधा लेंय बाँधें खें बैचैन रहत। छुट्टा आदमी इन्हें अखरत है -
अखरत छुट्टा आदमी, मजहब खूंटा थान।
कसो गरबंधा गरभ सें, चौकस रचो विधान।।
मालिक नै भेजो इतै, बना-बना इंसान।
खूँटन से बंध-बंध दिखौ बने फिरत हैवान।।
हमाए देश में सम्प्रदाय और औतारन की होड़ मची है। जैसें जीवन बीमा कराउत वाली कई कंपनियन ने आदमी खें हलकान कर दओ। अब तो बीमा एजेन्टन खें दिखखें आदमी बगल काट जात। ऊसई ई औतारन सें आदमी छरकन लगो। कवि ने ई दोहन में उनकी परत की परत छोली-
औतारन की हाट में, सस्तौ भओ भगवान।
गैल-गैल अध्यात्म की, खुल गईं निजी दुकान।।
जहाँ दिखौ अब तौ उतईं, उखर परत औतार।
चलो बिना लैसंस कौ, यौ साजौ हतयार।।
पथरा सब देवता करे, भर-भर जबरई प्रान।
भरे प्रान जुन आये ते, वे कर दए पाखान।।
ई अध्यात्मियों के रंग-ढंग तो दिखौ-
पा गए भोजन सार सब, मिल गओ चम्म उसार।
धर माइक चिलत अब, हैं असार संसार।।
आजकल शराब और जुआ ने कइयक घर बरबाद कर दए। बिटिया ब्याव जोग हो गई। लरका उघरारे फिरत पै ई आदमियन खें शरम नई आउत। कवि ने ई आदमियन की शरम खें धो-धो खें ऐसें ऊजरी करी। -
उघरारे मौड़ा फिरत, कन्या जोरें हाँत।
दद्दा जू खेलत जुआँ, पुजत जात जैजात।।
हेरत सिसयानी सुतिय, फिफयाने कृश बाल।।
घुरकत पति पउआ गहै, भिनकत परसो थाल।
भइया जू, पीकै गए, खरयाना में खैंड़।
जबरई ठेसर पै जमे, दओ हाँत सब बैड़।।
हमाओ समाज बरन व्यवस्था और जाति व्यवस्था से पूरी तरां जकड़ो। जाति व्यवस्था के मिटावे कौ दंभ भरत बाले बरन व्यवस्था की पैरवी करत दिखात। ऐसे लोगन पै कवि ने कस खें कटाच्छ करो। कवि ने ई प्रतीकन से उनकी खूब खबर लई -
जाति-पाँति मेटन चहत, वर्ण व्यवस्था थाप।
मारत फिरत संपेलुआ, धरै, पिटारै साँप।।
कवि लिखे खें महत्वपूरन मानत काये कि लिखो साहित्य ओखे अमर बना देत। पीढ़ियाँ ओखे लिखे खें याद करत। आज के जुग में पाठक लेखक सें लगातार दूर होत जा रहो। पाठक-लेखक के सम्बन्ध टूटें की कगार पै आ गए। छपी किताबन खें पढ़त बाले नई मिलत। आज की पीढ़ी किताबन से दूर होत जा रही। जब या पीढ़ी पढहै नई ता लिखहै का? आज साजे लेखक की कमी खलत है। ऊसे एक बात येऊ है कि टीवी और इण्टरनेट ने आदमी खें किताबन से दूर कर दओ है। पै जेखें किताबन से रुचि है ऊतौ किताबे सरग से ढूँढ़ खे पढ़त। मैं अब कवि की बात करों; कवि ने लिखे के महत्व पै यौ उजयारौ डारो-
बक्का कक्का जू बने, जौ लौ थको न बोल।
पै सिक्का जुग-जुग चलत, लिक्खई कौ अनमोल।।
गई धार तलवार की, गए ताज सिरताज।
रूसो मरकस है अमर, करत लिखत बलराज।।
ऊ काव्य काए विशिष्ट न होहै जेमें आमजन की बात कही गई होबे। आमजन की बात करे तो कोई-
अजपा जनहित कौ जपत, भरें मनुजतइ इष्ट।
अक्षर अन्तस के लिखत, काए न होय विशिष्ट।।
कवि ने ‘सद्विचार सतसई’ के अन्त में अपनौ परिचय दओ है। हमाए पुराने पुरखा लिख तो गए पै अपनौ परिचय कम दओ। ई कारन से उनके जलमकाल, ठौर आदि में भ्रम बनो है। कवि ने अपने जीवन के संदर्भ में अंधयारौ नई राखो। उन्नैं ‘सद्विचार सतसई’ काव्य ग्रन्थ सन् 1990 ई0 में पूरौ करो-
बंशज बाजासिंह के, इटैलिया बासिन्द।
सद्विचार सतसई, कृत विरची हरगोविन्द।।
बरस उमर पचपन चलत, सदी बीसवीं अन्त।
सन् नब्बे में सतसई, पूरी करी लिखन्त।।
‘सद्विचार सतसई’ में कवि कौ काव्यत्व चरम खें छू गओ। समाज कौ भलौ करत वाले साहित्य की रचना करखें उन्नै साहित्य कौ भलौ तो करोई है साथ में आदमी खें एक गली लखाउत चले गए। जहाँ उन्होंने कुरीतियन और रुढ़ियन पै कस खें प्रहार करो वहीं बिंग के माध्यम से उनकी खिल्लीयऊ खूब उड़ाई। सद्विचार सतसई पाठकन खें लुभाउन बाली है, गुद्गुदाउन बाली है। एखें पढ़त-पढ़त हम डूबा साध जात, कछू पावे के लानै। हमें एमें अपनौ अक्स दिखात। एक बात और या हमें भीतर लौं छुअत। ई छुअन में हम कभऊँ कसक उठत तौ कभऊँ अपने खें हल्कौ-फुल्कौ महसूस करन लगत। ऐसे यशस्वी बुन्देली काव्य मनीषी खें हम येई कृति के बहाने खबर कर लेत। ई खबर में हमें हर्ष कौ अनुभौ होत।
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