बुन्देली कविता - कृपाराम 'कृपालु'
नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ---------------------------------------------------------------- बुन्देली कविता कृपाराम ‘कृपालु’ |
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(1) गरीब की मजबूरी
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चुटकी चून बचै नईं घर में,
का तुमें पै के खुवावो।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
हड़िया भर के धरी महेरी,
का लौं लरका खावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
डरी मजूरी पांच दिनां की,
देवे में कतरावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
काम लेत छाती में चढ़ कें,
ऊपर से गुर्रावे।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
भूके बच्चा संग लगाकें,
कांलौ फोंरा चलायें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
कत ‘कृपालु’ नेंक हम तर हेरो,
तौं हमहूँ पल जावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
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(2) वे बासी खा जातीं
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अलख भोर जग जातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
चैंपे चऊवा काढ़ कें दोरें,
फिर वे मठा भमातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
गोबर, कूरा, सानी करकें,
वे चूलौ, सुलगातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
रोटी पानी सब निपटा कें,
फिर मोड़ा बिलमातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
मींड़ दूध में लरका खैहँ ,
वे बासी खा जातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
कहैं कृपालु वे मार कछोटा,
अकरी मोथा निरातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
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रामनगर, उरई (जालौन) उ0प्र0 |
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