सच्चे साथी

कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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कुसुमांजलि शर्मा





राजनगर के एक छोटे से घर में राघव अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहता था। बहुत वर्षों पहले जब छोटा था, उसके माता-पिता प्लेग की बीमारी से मर गये थे। उसका एक मात्र सहारा उसकी बूढ़ी दादी थी। दादी गाँव में किसानों के घरों में मजदूरी करके अनाज का इन्तजाम कर लेती थी। झोपड़ी के चारों तरफ जो जमीन थी उस पर उसने फल के पेड़ व सब्जियों के पौधे लगा रखे थे। वह पेड़ पौधों की प्यार से देखभाल करती थी। उन्हें खाद पानी समय पर देती थी। फलों व सब्जियों को वह अपने मुहल्ला पड़ोस में बेचकर थोड़े रुपये भी कमा लेती थी परन्तु उसका खर्च इतनी कम आमदनी से पूरा नहीं होता था। उसे एक बात का भी दुःख था कि अपने पोते रघु को वह घी, दूध बिल्कुल नहीं दे पाती।
उसका पोता रघु जवान हो गया था। वह अपनी बूढ़ी दादी की परेशानियों को देखकर दुखी होता था। वह चाहता था कि वह दादी को अब आराम दे। दिन भर बेचारी मेहनत करती हैं, फिकर के कारण रात को ठीक से सोती भी नहीं है। मैं जवान लड़का हूँ, मुझे मेहनत करनी चाहिए परन्तु मुझे कौन देगा काम? वह चाहता था गाँव में रहकर पढ़े और काम भी करे जिससे नियमित आमदनी होने लगे। जब उसे गाँव में काम नहीं मिला तो उसने शहर जाने का विचार किया। वह रोज शहर जाने का प्रोग्राम बनाता, रोज उसकी बूढ़ी दादी उसे रोक लेती थी, तुझे अपने गाँव में ही काम मिल जायेगा। ‘‘कहाँ?’’ वह पूछता था ‘‘कौन देगा मुझे काम?’’ दादी बोली अपने गाँव के पटेल के पास बहुत जमीन है, वही तुझे कोई काम देगा।’’ एक दिन उसने रघु को पटेल के घर भेजा। पटेल अपने घर के आँगन में आराम से कुर्सी पर बैठा दो चार लोगों से बतिया रहा था। रघु ने उसे प्रणाम किया और खड़ा हो गया। पूरे दस मिनट तक वह गाँव वालों से बातें करता रहा। उनके जाने के बाद उसने रघु की ओर देखकर पूछा-‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ ‘‘रघु’’ ‘‘हाँ याद आया, रघु ही बताया था तुम्हारी दादी ने।’’ पटेल ने पाँच मिनट चुप रहकर पुनः पूछा ‘‘क्या करोगे? मेरा मतलब है तुम्हें कौन सा काम पसन्द है?’’ रघु ने फट से उत्तर दिया ‘‘कोई काम सब काम कर लूँगा।’’ पटेल ने पूछा-‘‘कितना पढ़े हो?’’ ‘‘जी इण्टर पास हूँ’’-रघु ने बताया। पटेल बोला-‘‘ठीक है मेरे खेतों में जो मजदूर काम करते हैं तुम उनका हिसाब रखोगे। रोज शाम को तुम मुझे बताओगे कि किसने कितना काम किया? किसकी कितनी दिहाड़ी बनी। कर सकोगे ये काम?’’ रघु बोला-‘‘कर लूँगा। कब से करना होगा मुझे काम?’’ ‘‘अरे भाई कल से आ जाओ।’’ पटेल बोला। रघु उन्हें प्रणाम करके अपने घर लौट आया। घर आकर रघु ने अपनी दादी से कहा-‘‘दादी, काम तो पटेल ने दे दिया है लेकिन उसने यह नहीं बताया कि वह मुझे काम के बदले कितने रुपये देगा।’’ दादी ने उसे समझाया-‘‘तू रुपये की चिंता मत कर। पटेल अगर रुपये नहीं देगा तो नाज पानी देगा। हमारे लिए वही बहुत है।’’ रघु को दादी की बात पसन्द नहीं आई। वह काम के बदले नाज पाना नहीं बल्कि रुपये चाहता था।
दूसरे दिन से रघु काम पर जाने लगा परन्तु उसे अपना काम पसन्द नहीं आया। दस बारह घंटे प्रति दिन वह काम करता था। मजदूरों की हाजिरी लेकर उनके काम पर भी नजर रखता था। शाम को पटेल के घर जाकर दिनभर के काम की रिपोर्ट देता था। पटेल उसका हिसाब सही होने पर भी मजदूरों की मजदूरी के रुपये काट लेता था। इससे रघु को बहुत दुख होता था। इससे तंग आकर उसने पटेल का काम छोड़ दिया। उसने दादी से साफ-साफ कह दिया-‘‘दादी मैं शहर जरूर जाऊँगा। तुम मेरी चिन्ता मत करो। जवान लड़का हूँ, शहर में रहकर पढ़ूगा तथा कुछ रुपये भी कमा कर तुम्हारे खर्च पानी के लिए भी भेज सकूँगा।’’ रघु की जिद के सामने दादी को झुकना पड़ा। उसने रघु को सौ रुपये कहीं से लाकर दिये। नाश्ते के लिए थोड़ी रोटियाँ भी पोटली में बाँध दीं। चलने के पहले रघु ने दादी के पैर छूकर कहा-‘‘दादी तुम अपना ख्याल रखना। मैं तुम्हारे लिए जल्दी से रुपये भेजूँगा, उन रुपयों से तुम अपना खर्च चलाना।’’ दादी ने भीगी आँखों से उसे आशीर्वाद दिया।
रघु के जाने के बाद दादी उदास व अकेली हो गयी। उसने अपना मन बहलाने के लिए अपने पेड़ पौधों की सेवा में मन लगाया। कई नये पौध भी लगाये। उसके बगीचे में पेड़ों पर तोते, नीलकंठ, रंग बिरंगी चिड़ियाँ और मोर घोंसले बना कर रहते थे। वे जब आपस में लड़ते बोलते थे तो दादी को मजा आता था। दादी उनके स्वभाव व बोली को समझने लगी थी। वे सब उसके आस-पास निर्भीक होकर फुदकते एवं उसके हाथों पर बैठकर दाना चुगते, कन्धां पर बैठकर खेलते थे। कुछ दिनों बाद दादी के बगीचे में कही से एक बन्दर परिवार भी पीपल के पेड़ पर आकर रहने लगा। वह शुरू-शुरू में तो बन्दर के बच्चों के कारण परेशान होती थी। वे कच्चे फल तोड़कर जमीन पर फेंक देते थे। दादी ने दो चार बार उनको पके फल अपने हाथ से दिये। दादी का प्यार देखकर उन्होंने फल बर्बाद करने बन्द कर दिये।
रघु शहर में पहले बहुत परेशान हुआ। शहर का कोई आदमी उसे नहीं जानता था सो उसे कोई काम नहीं देता था। उसे रुपयों के अभाव के कारण कई बार रात को बिना खाना खाये सोना पड़ा। रात को वह किसी दुकान के चबूतरे या बेंच पर सो जाता था। बहुत कोशिश के बाद वह एक अमीर परिवार में रात का चैकीदार बन गया। वहीं उसे रहने के लिए एक कोठरी भी मिल गयी। रघु बहुत मेहनत से रात को अपनी ड्यूटी करता था और दिन में कालेज में पढ़ने जाने लगा। उसने दो महीने पश्चात रुपये बचाकर अपनी दादी को सौ रुपये मनीआर्डर से भेज दिये। उसने दादी को चिट्ठी लिख दी कि वह शहर में आराम से है। रुपये तथा चिट्ठी पाकर दादी बहुत प्रसन्न हुई। उसने पक्षियों का मन पसन्द दाना और बन्दर परिवार के लिए केले खरीदे। उसने कहा-‘‘रघु की नौकरी लग गयी है, लो तुम भी मेरे बेटे की कमाई का सुख लो।’’ जब पक्षियों ने दाना चुगा और बन्दरों ने केले खाये तो दादी को बड़ा मजा आया।
रघु दिन में कालेज जाकर पढ़ता और रात में अपनी ड्यूटी करता था। तनख्वाह मिलते ही दादी के नाम कुछ रुपये मनीआर्डर से भेज देता था। वह उसे चिट्ठी में लिखता था कि रोज दूध पिया करे, मेहनत मजदूरी छोड़कर घर में आराम से रहे और पेड़ पौधों की देखभाल करें। दादी अपने बगीचे में किसी पेड़ के नीचे बैठकर रघु की चिट्ठी जोर-जोर से पढ़कर अपने जंगली मित्रों को सुनाती थी। वे लोग खुश होकर उछलकूद करते थे, उसे घेर कर बैठ जाते थे। दादी उसे गाँव के किसी पढ़े-लिखे लड़के से चिट्ठी लिखवा कर भेजती थी। अपनी हर चिट्ठी में वह अपने मित्रों के बारे में लिखती थी। दादी ने उसे चिट्ठी में एक बार लिखा कि बन्दरिया का छोटा बच्चा कहीं भाग गया है, सो वह बहुत दुखी है। इस पर रघु को बहुत हँसी आई। उधर रघु को भी अपनी दादी बहुत याद आती थी। वह सोचता था कि दादी ने मजदूरी करना अब बन्द कर दिया होगा। दादी की याद आने पर वह अपने मन में समय का हिसाब लगाकर सोचता था कि मैं जल्दी अपने गाँव जाऊँगा दादी से मिलूँगा। बस परीक्षा खत्म होते ही जाऊँगा, दादी के लिए ढेर से रुपये लेकर।
रघु की परीक्षा समाप्त हो गई तब उसने अपने मालिक से कहा, ‘‘मालिक अगर आप हाँ कर दें तो मैं गाँव जाकर अपनी दादी से मिल आऊँ।’’ मालिक ने कहा, ‘‘चले जाओ, लेकिन जल्दी लौटना। हमें तुम्हारे बिना बहुत परेशानी होगी।’’ रघु ने गाँव जाने से पहले दादी के लिए कपड़े व खाने का सामान खरीदा। शाम को घर पहुँचते ही उसने दादी के पैर छुए और सामान का थैला उसे दे दिया। कुछ देर बाद रघु गाँव में अपने दोस्तों से मिलने के लिए चला गया। दादी ने खाना बनाकर सामान का थैला देखा और अपने मित्रों से कहा, ‘‘रघु शहर से खूब केले व अमरूद लाया है, कल मिलकर खायेंगे।’’
अगले दिन रघु ने थैले से चार केले निकाले और आँगन में बैठकर कहा,‘‘दादी आओ अपन यहाँ केले खायें।’’ दादी ने चैके में से उत्तर दिया ‘‘तू खा ले, मैं तेरे लिए खीर बना रही हूँ। बाद में खा लूँगी।’’ रघु ने आँगन में बैठकर जैसे ही केला छीला पेड़ पर खेलते बन्दर के बच्चे ने झपट कर उसके हाथ से केला छीन लिया। रघु को बहुत गुस्सा आया, वह एक मोटा डंडा लेकर उसे मारने दौड़ा। उसके हाथ में डंडा देखकर बन्दर परिवार के सभी सदस्य पेड़ की ऊँची डाल पर चढ़कर गुस्से से कूदने और चीखने लगे। डालियों पर बैठे पक्षी बन्दरों की खों-खों से डर कर आकाश में गोल-गोल उड़ने लगे। रघु डंडे को बरामदे में छोड़कर चैके में चला गया। वह आराम से दादी की बनाई खीर खाने लगा। दादी को कुछ पता नहीं चला। बहुत देर बाद वह अपना काम खत्म करके बगीचे में केले लेकर आई। उसने पक्षियों के लिए दाना डाला, बन्दरों को बुलाया उसकी आवाज सुनकर भी पक्षी और बन्दर नीचे नहीं आये। बन्दर तो उसे देखकर ऊँची डाल पर बैठकर खों-खों करने लगे। दादी को बहुत आश्चर्य हुआ।
दादी दिन भर काम में जुटी रही। वह मजदूरी करने भी गयी परन्तु उदास रही। अपने मित्रों की उपेक्षा का कारण वह नहीं जान सकी। वह सोचती कि ये लोग मेरे साथ हँसते खेलते क्यों नहीं। मेरे सुख-दुख के साथ आज इतने पराये क्यों हैं? दिन समाप्त हो गया, वह दुखी मन से चैके में रात का खाना बनाने लगी। रघु हाथ पैर धोकर खाना खाने बैठा। जिद करके दादी को भी अपने साथ खाना खाने के लिए बैठा लिया। खाना खाते समय वह दादी से बोला,‘‘दादी अपने पेड़ों पर कई बन्दरों ने अड्डा जमा लिया है। बहुत सारे पक्षी भी पेड़ों पर रहते हैं, ये लोग फलों को खाते बिगाड़ते हैं, तुमने देखा नहीं दादी वे हमारा कितना नुकसान करते हैं।’’ दादी खामोश रही तो वह पुनः बोला,‘‘तुम डरो नहीं दादी मैं इन सबको देख लूँगा।’’ दादी को रघु की यह चेतावनी अच्छी नहीं लगी। उसने सोचा सुबह मैं इसे सब समझा दूँगी।
सुबह दादी की नींद शोर सुनकर खुल गयी, देखा रघु मोटा डंडा लेकर बन्दरों को दौड़ा रहा है। बन्दर चिल्लाते हुए पेड़ की ऊँची डालियों पर कूद रहे हैं। वह रघु के हाथ में हाथ से डंडा पकड़ने के लिए दौड़ी तो देखा कि एक तोता गुलेल से घायल जमीन पर मरणासन्न पड़ा है। वह दुख के कारण वहीं जमीन पर बैठकर रोने लगी। रघु उसे चुप कराने के लिए आया तो उसने उससे कहा,‘‘रघु तू मेरी दुनिया मत उजाड़। जा तू अपने शहर चला जा।’’ रघु को आश्चर्य हुआ, उसने दादी से पूछा,‘‘दादी तुम नहीं जानती, मेरा तुम्हारे सिवा दुनिया में कोई नहीं है। शहर में भी मुझे तुम्हारे प्यार का सहारा था। तुम इन जंगली पशु पक्षियों के कारण मुझे घर से भगा रही हो।’’ दादी ने रोते हुए कहा,‘‘इन्हीं के सहारे मैं इतने दिन खाती पीती रही हूँ। ये लोग मेरे सामने खेलकर, ऊधम करके मेरा मन बहलाते रहे हैं और तूने इन्हें मारा।’’ रघु को दादी के दुःख का कारण समझने में थोड़ी देर लगी परन्तु जैसे ही वह समझा उसने दादी के सिर पर अपना हाथ रखकर कसम खाई और कहा,‘‘दादी मेरा ख्याल था ये तुम्हें परेशान करते होंगे। तुम्हारा नुकसान करते होंगे। बस इसीलिए .....अच्छा छोड़ो। मुझे माफ कर दो और इन्हें मेरा दोस्त बना दो।’’
दादी ने अंदर से पक्षियों का मनपसन्द दाना, बन्दरों के लिए चने, केले व अमरूद मंगवाये। रघु के हाथों में केले देकर कहा,‘‘तुम डरना नहीं। केले लेकर बगीचे में आराम से बैठ जाना’’ उसने अपने हाथों से जमीन पर दाने बिखेर कर प्यार से पक्षियों को पुकारा। दादी के सामने पक्षी निर्भीक होकर जमीन पर बिखरे दाने चुगने लगे। दादी आराम से उनके बीच बैठी थी। पेड़ पर बैठा बन्दर परिवार रघु के हाथ में केले देख रहा था। थोड़ी देर में एक बच्चा दबे पाँव आया और रघु के हाथ से झपट कर केले ले गया। दादी की मुट्ठी चनों से भरी थी, उसने खोली और बन्दरिया कूद कर उसके हाथ से चने खाने लगी। उसे और बच्चों को चना-केला खाते देखकर बन्दर भी नीचे आया। रघु ने उसके सामने केले रखे। वह भी आराम से केला खाने लगा। रघु शान्त बैठा था। उसके हाथ में कोई डंडा नहीं था। बन्दरों की चालाकी देखकर उसे हँसी आ गयी। दादी उनके साथ जैसे छोटी बच्ची बन कर हंस खेल रही थी। वे लोग उसे घेर कर उछल-कूद रहे थे; दादी ताली बजा कर उनका मन बहला रही थी। रघु बोला,‘‘लो दादी, तुम्हारे दोस्त अब मेरे भी दोस्त हैं।’’ दादी का चेहरा प्रसन्नता के कारण बच्चों जैसा चमक रहा था।


द्वारा श्री कंचन त्रिपाठी,
नया सरकंडा, सीपत रोड,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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