मैं अकेला


कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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शामलाल कौशल




मोहनलाल अपने कमरे में बिल्कुल अकेला बैठा है। सूना सूना घर उसे खाने को दौड़ रहा है कभी वह दीवार पर टँगी उस तस्वीर को देखता है जिसमें उसकी बूढ़ी माँ प्रकाशवती ने उसकी बेटी सरिता की गोद में उठा रखा है तो कभी वह अपनी उसी बेटी सरिता के विवाह की एलबम को देखता। उसने सरिता का विवाह अपनी जान पहचान के एक व्यापारी के बेटे क्षितिज के साथ कर दिया। लोग अच्छे हैं, उसकी बेटी का पूरा ध्यान रखेंगे, कोई भी तकलीफ न होने देंगे, इसी भरोसे के साथ ही मोहनलाल ने अपनी जान से भी प्यारी तथा फूलों से भी ज्यादा कोमल बेटी को विदा किया था। सरिता जन्म से ही अपनी माँ के दुलार-प्यार से वंचित रही थी। इसीलिए उसके पिता ने उसे बाप का प्यार देने के साथ-साथ माँ के लाड़ प्यार की कमी महसूस नहीं होने दी। उस दिन जब उसकी बेटी की डोली घर से विदा हुई थी। उसे लग रहा था जैसे कि उसका कलेजा फट रहा है और उसकी आत्मा शरीर से अलग हो रही हो। बहुत मुश्किल से उसने अपने आपको सँभाला था। वह रात दिन परमात्मा से यही दुआ करता कि उसकी बेटी सरिता अपने पति क्षितिज तथा ससुराल वालों के साथ खूब घुल मिलकर खुश तथा सुखी रहे, खूब फले फूले तथा अपने सद्कर्मों के द्वारा प्रशंसा की पात्र बने।
अचानक वह अतीत में चला जाता है। अभी वह बहुत ही छोटा था जब उसके पिता जी का देहांत हो गया था। घर पर जो थोड़ी बहुत पूंजी थी वह उनकी दवा-दारू पर खर्च हो गई थी। घर में और कोई बड़ा नहीं था। उसकी माँ के सामने घर-बार चलाने की विकट स्थिति पैदा हो गई थी। वह कुछ खास पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए उसने गुजारा चलाने के लिए दूसरों के घरों में काम करने तथा चारपाईयाँ बुनने का काम शुरू कर दिया। इस तरह उसने थोड़े बहुत पैसे इकट्ठे करके कपड़े सीने की एक पुरानी मशीन खरीद ली और घर में कपड़े सिल कर आमदनी करनी शुरू कर दी। कपड़े सीने से उसकी माँ को जो आमदनी प्राप्त होती थी उससे घर का काम संतोषजनक ढंग से चल जाता था।
इस बीच उसकी माँ उसे अपने हाथ से खाना खिलाती, स्कूल के लिए तैयार करती, वापिस आने पर वह पूछती कि उसकी क्लास में कौन-कौन से बच्चे हैं, पूछे जाने पर वह याद किया हुआ पाठ सुनाता है या नहीं, आदि-आदि। इस तरह उसकी माँ उसका पूरा ख्याल रखती। प्रकाशवती ने मोहनलाल को मैट्रिक पास कराने के बाद अपने बचत की कुछ पूंजी लगाकर घर में ही छोटी सी कपड़े की दुकान खोल दी। उसकी माँ उसे दुकानदारी के गुण सिखाती, ग्राहकों के साथ कैसे बात करनी है, भाव कैसे तय करने हैं आदि सिखाती। इस तरह उसकी माँ केवल उसकी माँ ही नहीं बल्कि उसके लिए एक पिता, गुरु, मित्र तथा बहन भी थी। जब भी उसे कोई परेशानी होती वह छोटे बच्चे की तरह अपनी माँ की गोद में लेट जाता।
समय आने पर उसकी माँ ने उसका विवाह मोहल्ले की शकुन्तला से कर दिया। एक दिन शकुन्तला एक कन्या को जन्म देकर परमात्मा को प्यारी हो गई। एक बार फिर प्रकाशवती तथा मोहनलाल पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन प्रकाशवती ने इस परीक्षा का भी मुकाबला भी दृढ़ निश्चय से करने का फैसला किया। उसने उस बेटी की भी उसी तरह देखभाल करनी शुरू कर दी जैसे अपने बेटे मोहनलाल की थी। वह मोहन की बेटी सविता की मालिश करती, नहलाती, दूध पिलाती, कपड़ों की सिलाई करते समय अपनी गोद में लेकर बैठती और जब वह सो जाती तो उसे चारपाई पर सुला देती।
बेटी के पैदा होने के बाद उसकी आर्थिक स्थिति में काफी बेहतरी हुई इसलिए वह अपनी बेटी को भागवन्ती कहता था। अब उसकी बेटी सरिता लगभग ढाई वर्ष की हो गई थी, जब वह तोतली ज़बान से प्यारी प्यारी बाते करती, इधर उधर चलती फिरती, भागती-दौड़ती, कभी-कभी प्रकाशवती की सिलाई की मशीन पकड़ती तो माँ बेटे को ऐसे लगता जैसे कि यह छोटी सरिता उनके वीरान घर में खुशियों के द्वार खोलती हुई आई है। कहते हैं कि कोई भी खुशी दुनिया में बहुत देर तक टिकी नहीं रह सकती यह बात बेचारे मोहनलाल के साथ हुई। एक रात प्रकाशवती को जोर की खाँसी उठी। हड्डियों का ढाँचा बनी प्रकाशवती खाँसते-खाँसते मोहनलाल और सरिता को अकेला छोड़ गई। मोहनलाल पर तो मानो बिजली गिर पड़ी। वह कभी यह बात मान ही नहीं सकता था कि उसकी माँ मर भी सकती है लेकिन यह हृदय विदारक कटु सत्य उसके सामने था। यह सब देखकर वह छोटे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। उसे लगा जैसे उसका भगवान ही मर गया हो। इतने में उसकी बेटी सरिता उसके पास आई और अपने छोटे-छोटे, नर्म-नर्म प्यारे हाथों से अपने पिता के आँसू पोंछते हुए कहने लगी-‘‘पापा, लोओ मत, मैं हूँ न।’’ उस बालिका की तोतली ज़बान सुनकर मोहनलाल चुप हो गया। रात भर बाप-बेटी लाश के पास ही बैठे रहे और सुबह होने पर आस पास के लोगों को इस दुःखद समाचार को सुनाया। उसकी माँ का विधिवत ढंग से दाह-संस्कार कर दिया गया।
इसके बाद मोहनलाल ने अपना बाकी का जीवन अपनी बेटी को पालने-पोसने, पढ़ाने-लिखाने के लिए उसी तरह समर्पित कर दिया जैसे कि उसकी माँ ने इसके लिए किया था। उसके लिए जीने का मतलब सिर्फ उसकी बेटी ही बनकर रह गया था। वह अपनी बेटी की खुशी के लिए सब कुछ कर देना चाहता था। अपनी माँ से मिले संस्कार, प्यार, दुलार व लाड़ उसे लौटा देना चाहता था। वह अपनी बेटी के लिए नयी फ्राक, जूते, खिलौने लाता। जिन खिलौनों से खेलते-खेलते वह ऊब जाती या जो खिलौने टूट जाते उन्हें वह संभाल कर रखता। वह उसकी खुशी के लिए घोड़ा बनता, उसके साथ खेलता, भागता और उसे खुश करने के लिए तरह-तरह के पशुओं व पक्षियों की आवाजें निकालता। इससे उसकी बेटी बहुत खुश होती। ऐसे में उसे अगर कभी अपनी माँ की याद आती भी तो उसकी बेटी का अथाह प्यार उसे उदास न होने देता। कभी-कभी उसे लगता कि उसकी माँ की मृत्यु की असहनीय तकलीफ उसे तब महसूस होगी जब उसकी बेटी सरिता विवाह के बाद ससुराल चली जायेगी। समय अपनी गति से चलता रहा। सरिता बड़ी होती-होती विवाह योग्य आयु तक पहुँच गई और उसने उसका विवाह एक योग्य वर के साथ कर दिया।
आज मोहनलाल बहुत उदास है। उसे लग रहा है कि इस भरी दुनिया में अब वह बिलकुल अकेला रह गया है। एक बार फिर उसे अपनी माँ का प्यार-दुलार याद आ रहा है। वह कभी दीवार पर टँगी अपनी माँ तथा बेटी की फोटो को देखता है तथा कभी अपनी बेटी के उन खिलौनों को देखता है जिनसे वह खेला करती थी। माँ के दुलार और बेटी के स्नेह के वशीभूत वह एक गुड़िया को उठाकर सीने से लगा लेता है, जिससे उसकी बेटी ज्यादा खेला करती थी और फिर प्यार से कहता है-‘‘बेटे सरिता, आप तो पापा के साथ हमेशा रहोगे न? छोड़कर तो नहीं जाओगे?’’ उसकी आँखों में आँसुओं की बाढ़ आ जाती है।


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