बाल साहित्य की यात्रा


आलेख / जुलाई-अक्टूबर 08
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डा0 हरि सिंह


किसी भी भाषा में बालोचित या बालोपयोगी साहित्य का सृजन उस भाषा के समग्र चिंतन को प्रतिबिम्बित करता है। मानस-चेतना के अनुभव का संस्कारमय संसार, बालमन के उज्ज्वल भविष्य को संकेतित करता है। भारतीय परम्परा में बच्चों के सर्वांगीण चारित्रिक विकास एवं संतुलित व्यक्तित्व निर्माण के एक ओर विभिन्न संस्कारों की उद्भावना की गई है वहीं दूसरी ओर ऐसे साहित्य का सतत निर्माण किया गया है जो कथाओं और गीतों के माध्यम से उन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर तथा असत्य से सत्य की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करता है।
भारत में रामायण, महाभारत, पुराण, उपपुराण, उपनिषद, पंचतंत्र, हितोपदेश, बौद्ध जातक कथाएँ आदि आख्यानिक ग्रंथों ने इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सदियों तक इन ग्रन्थों ने बालमन की जीवनोपयोगी व्यावहारिक शिक्षा का अवलम्बन प्रदान किया है। पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सौहाद्र्र तथा व्यक्तिगत जीवन में सूझबूझ एवं चतुराई का आधार इन ग्रन्थों में मिलता है। ये ग्रन्थ अद्यतन बालमन को प्रेरित और प्रभावित कर रहे हैं।
हिन्दी में बालकों की पहली पुस्तक का श्रेय राजस्थान के कवि जटमल (सन् 1623) में लिखी गई ‘गोरा बादल की कथा’ को प्राप्त है। वस्तुतः यह राजस्थानी में लिखी गई पद्यमिश्रित गद्यकृति है। इसमें गोरा बादल की वीरता का चित्रण है। इसे साहस और शौर्य गाथा माना जाता है। इसी बीच पाश्चात्य जगत में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रूसी, मांटिसरी, पेस्टोलाजी जैसे बाल मनोवैज्ञानिकों ने पहली बार बच्चों के बारे में बात की और कहा कि बच्चों की भी अपनी पहचान है। बच्चा अबोध और अयोग्य नहीं है बच्चे की भी अपनी शक्ति है, क्षमता है, उसके पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए।
जहाँ तक आधुनिक हिन्दी बाल-साहित्य की सम्भावना भरी शुरुआत और उसकी निरंतर प्रवहमान परम्परा की बात है वह बीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही मानी जा सकती है। सन् 1901 में बालमुकुंद गुप्त ने बच्चों के लिए कविताएँ लिखी थीं। मैथिलीशरण गुप्त की एक बालोपयोगी रचना ‘ओला’ सरस्वती में प्रकाशित हुई थी।
आगे चलकर शिशु, बालसखा, वानर, बाल हितैषी, बालदर्पण, चुन्नू-मुन्नू, मनमोहन बच्चों की दुनिया, विद्यार्थी, अक्षय भैया, बालक, दीदी, बाल बोध, चम-चम खिलौना आदि पाठिकाओं ने बाल-साहित्य को आगे लाने और उसके विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद हिन्दी साहित्य की चर्चित और बड़ी विभूतियों ने बाल-साहित्य सृजन में सहभागिता कर उसे समृद्ध और सुदृढ़ किया।
स्वतन्त्रता-पूर्व बाल-साहित्य में इतिहास गौरव, देशप्रेम, नैतिक शिक्षा, उपदेश बालकों का खिलंदड़पना, नटखटपना, चुलबुली चतुराई भरी मस्ती को अधिक स्थान मिला। प्रारम्भिक रचनाओं में कविताओं और नाटकों को ही बाल-साहित्य की प्रिय विधा माना जाता था किन्तु जो नींव हिन्दी साहित्य के विभूतियों ने डाली उसी पर आज का भव्य एवं सुदृढ़ बाल-साहित्य का प्रसाद खड़ा है।
सन् 1947 के बाद बाल-साहित्य के विकास में कई बातें उल्लेखनीय रहीं। पहले बाल-साहित्य में धार्मिक बोध कथाओं एवं लोक कथाओं का प्राधान्य था। स्वतंत्रता के बाद साहित्यकार राष्ट्रीय नव निर्माण के बिम्ब अपनी रचनाओं में उभारने लगे किन्तु बाल-साहित्य अभी भी लोक कथाओं और बोध कथाओं की गिरफ्त में था। इसी धारा में पंचतंत्र और कई पौराणिक कथाओं के संग्रहों का पुनप्र्रकाशन आरम्भ हुआ। कई प्रकाशकों ने बाल-साहित्य की कथा पुस्तकों के सेट प्रकाशित किए किन्तु उनमें बाल मानसिकता का अभाव ही था। स्वतंत्रता के प्रारम्भ में ही हिन्दी बाल-साहित्य की प्रोत्साहक पत्रिका ‘बालसखा’ का प्रकाशन बन्द हो गया। इससे उस समय के बाल-साहित्य को भारी धक्का सा लगा। हाँ कुछ व्यावसायिक पत्रिकाओं ने बाल-साहित्य के लिए कुछ पृष्ठ सुरक्षित किए, जिससे इस दिशा में बात आगे बढ़ी। ऐसी पत्रिकाओं में धर्मयुग, हिन्दुस्तान तत्पश्चात साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि की मुख्य भूमिका रही।
आजादी बाद जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ा, प्रकाशन की सुविधायें बढ़ीं, मुद्रण तकनीकी में सुधार हुआ वैसे-वैसे बाल-साहित्य की पत्रिकाओं की संख्या में आशातीत वृद्धि होने लगी। सन् 1947 से 1970 तक का समय हिन्दी बाल-साहित्य की ऊँचाइयों का युग था। नंदन, पराग, लोटपोट, बाल-भारती, स्नेह, किशोर भारती, बालक, चंदा मामा, लल्ला, मनमोहन, शेर बच्चा जैसी पत्रिकाएँ प्रकाश में आ चुकी थीं।
सन् 1970 से बीसवीं सदी के अंत तक का कालखंड, बाल-साहित्य का विकास युग रहा। बाल मनोविज्ञान को केन्द्र में रखकर विचार तत्त्व की सक्रियता इस कालखंड की प्रमुख विशेषता रही। बच्चों के दिन-प्रतिदिन भारी होते जा रहे स्कूली बस्ते, पढ़ाई और ट्यूशन का बोझ, बढ़ते एकल परिवार में बच्चों के मन की घुटन, उपेक्षा और उसके मन में अपने से बड़ों की दुनिया के विरुद्ध उमड़ी शिकायतों को आधार बना कर भी कहानियाँ-कविताएँ आदि लिखीं गयीं। बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि जाग्रत करने की दृष्टि से काशी पत्रिका विज्ञान, प्रगति विज्ञान, गंगा विज्ञान, चकमक, बाल विज्ञान समाचार जैसी विज्ञान पत्रिकाएँ भी इस कालखण्ड में प्रकाशित हुईं।
इक्कीसवीं सदी कम्प्यूटर की सदी है। बच्चे भी इससे अछूते नहीं रह गये हैं। प्रबल जिज्ञासु होने के कारण बच्चा अपने आसपास के परिवेश की प्रत्येक घटना को जाँचना-परखना चाहता है। आज राष्ट्रप्रेम, साहस, वीरता, नैतिकता, पारम्परिक मूल्य बच्चों की प्राथमिकता में नहीं रह गये हैं। एक आम वयस्क भारतीय की भाँति बच्चे भी भौतिक सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। अब बच्चे उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के बच्चों की भाँति कोरी स्लेट नहीं रह गये हैं। अब तो जन्म से ही मीडिया (इलेक्ट्रानिक) तड़क-भड़क वाले विज्ञापनों द्वारा बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। अब न दादी-नानी उन्हें लोककथाएँ सुना पाती हैं और न फिल्मी संगीत के कानफोड़ शोर में लोकगाथाएँ मानव-कल्याण का संदेश दे पाती हैं। टी0वी0, मोबाइल और कम्प्यूटर ने अब गाँव, शहर तथा महानगर का अंतर मिटा दिया है। आज का बच्चा इतिहास पुराण और धर्मग्रन्थों का पारायण अनिवार्य और आवश्यक नहीं समझता। बच्चों के अभिभावक अब उसे राम, कृष्ण, सीता, सावित्री अथवा महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री जैसा बनने की प्रेरणा नहीं वरन् उससे ज्यादा से ज्यादा वेतन वाले पदों की आकांक्षा रखते हैं। अब बच्चे क्रिकेट स्टार, फिल्म स्टार तथा अरबपति बनने के ख्वाब देखते हैं। ऐसी सुनियोजित व्यवस्था हम लोगों ने नई पीढ़ी के लिए बना दी है।
प्रारम्भ से ही हिन्दी साहित्य में बाल-साहित्य को दोयम दर्जे के साहित्य की मान्यता रही है, मानो बाल-साहित्य लिखना बच्चों की हँसी ठठ्ठा हो। यद्यपि वरिष्ठ साहित्यकारों ने सामान्य साहित्य के साथ-साथ बाल-साहित्य (कविता, कहानी, नाटक आदि) भी लिखा लेकिन इसे प्रमुखता कभी नहीं दी। सिर्फ यह कहकर छुट्टी पा ली जाती है कि बाल-साहित्य भी लिखा है। जो बाल-साहित्यकार है उन्हें साहित्य की मुख्य धारा में अस्पृश्य मान उनके प्रति हीनता का भाव दिखाते हुए कहा जाता है-‘अरे भाई, ये तो बाल-साहित्यकार ही है।’
यही कारण है कि आज किसी भी विश्वविद्यालय में बाल-साहित्य, एक मुख्य अथवा वैकल्पिक प्रश्नपत्र के रूप में पाठ्यक्रम में पढ़ाया नहीं जाता। यहाँ तक कि हिन्दी साहित्य के इतिहास की भारी-भरकम पुस्तकों में बाल-साहित्य एक अध्याय के रूप में भी चर्चा में नहीं रहता। क्या बाल-साहित्य की उपलब्धियाँ हिन्दी कथा साहित्य या कविता, व्यंग्य, निबन्ध आदि से कमतर हैं या इनके रचनाकार कोई दोयम दर्जे के हैं?
भारत सरकार से वित्तपोषित सर्वोच्च साहित्य संस्था साहित्य अकादमी ने आज तक किसी भी भाषा के बाल-साहित्य के लिए कोई साहित्य अकादमी पुरस्कार देना गँवारा नहीं किया है। विभिन्न राज्य सरकारों की हिन्दी अकादमियों, परिषदों, संस्थानों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं ने भी कभी बाल-साहित्य पर विशेषांक प्रकाशित नहीं किए हैं। इनके द्वारा बाल-साहित्य पर संगोष्ठी, कार्यशालाएँ अथवा सम्मेलन आदि भी आयोजित नहीं होते। कोढ़ में खाज ये भी है कि जिन सरकारी संस्थाओं द्वारा बाल-साहित्य के लिए पुरस्कार दिये जाते हैं वे अन्य सामान्य पुरस्कारों से आधी धनराशि के भी नहीं होते हैं, यानि इन सरकारी अकादमियों ने बाल-साहित्य की दोयम दर्जे के साहित्य की ही मान्यता प्रदान करने की कृपा की है। गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा पुरस्कारों की जो बंदरबाँट की जाती है उसमें बाल-साहित्य के लिए कोई पुरस्कार देना तो उन्हें अपमान ही लगता है।
आज बदलते परिवेश में बाल-साहित्यकारों से यही अपेक्षा की जा सकती है कि वे बच्चों के आज के परिवेश, उनकी आवश्यकता, उनके बदलते मनोविज्ञान से जुड़कर साहित्य रचना करें क्योंकि वर्तमान पीढ़ी के बच्चे अब बहुत जागरूक सावधान और सचेत हैं।
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