सूरज उगाना चाहता हूँ


गीत / जुलाई-अक्टूबर 08
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डा0 मोहन ‘आनन्द’




इस कुहासे को हटाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

छा गई बदली अंधेरे की यहाँ,
ढूंढते न मिल रहा है पथ कहाँ?
आँख पर पट्टी बंधी सी लग रही,
बात सुनकर भी लगे ज्यों अनकही।
आँख से पर्दा उठाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

खुद करें गलती मगर क्यों दोष दूजों पर मढ़ें,
बांधकर फंदा स्वयं फिर शूलियों पर जो चढ़े।
वक्त की करवट कहें या आदमी की भूल,
हो रहा मजबूर है क्यों चाटने को धूल।
आदमी को आदमी का कद दिखाना चाहता हूं,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूं।

चूक जायेगा समय तब, क्या समझ में आयेगा,
सूखने के बाद क्या पानी दिया हरयाएगा।
लुट चुके को भागने से क्या मिलेगा बताओ?
होश में आओ स्वयं मत आग खुद घर में लगाओ।
हो चुके बेहोश उनको होश लाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

तुम बनो सूरज मिटा डालो अंधेरा,
बीत जाए रात काली हो सबेरा।
प्रलय की पहली किरण झंकार कर दो,
बुझ चुके हारे दिलों में प्यार भर दो।
शाख उजड़ी पर नई कोंपल उगाना चाहता हू,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।



सुन्दरम बंगला,
50 महाबली नगर,
कोलार रोड, भोपाल (म0प्र0)

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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