सार्थक प्रयास करना होगा
बात दिल की / जुलाई-अक्टूबर 08
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/सम्पादकीय
वर्तमान में साहित्यिक क्षेत्र दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, साहित्य पुनर्लेखन, वर्तमान-भूत-भविष्य आदि की पड़ताल जैसे मुद्दों पर लगातार चर्चा कर रहा है; उपन्यास, कहानी, कविता आदि क्षेत्रों में नित नये प्रयोग किये जा रहे हैं.....और भी बहुत कुछ हो रहा है जो साहित्य के क्षेत्र में हलचल बनाये हुए है। इस सबके बाद भी बाल साहित्य में एक शून्य बिखरा हुआ है। वर्तमान में बाल साहित्य के नाम पर जो भी कार्य हो रहा है वह लगभग न के बराबर ही कहा जायेगा।
यदि बाल साहित्य के इतिहास पर नजर डालें तो ज्ञात होगा कि इस विधा में रचनात्मक कार्य भारतेन्दु युग से ही प्रारम्भ हो गया था किन्तु यह यदा-कदा रचनाओं के रूप में ही हुआ। इस कारण से उनका समीक्षात्मक अध्ययन सम्भव न हो सका। सही मायनों में देखा जाये तो सन् 1952 में ज्योत्सना द्विवेदी के प्रकाशित ग्रन्थ ‘हिन्दी किशोर साहित्य’ ने बाल एवं किशोर साहित्य को समग्र रूप से रेखांकित किया। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के बाद एकाएक बाल साहित्य पर कार्य करने वाले प्रकाश में आ गये। निरंकार देव ‘रोतक’, आनंद प्रकाश जैन, हरिकृष्ण देवसरे, सत्यकाम विद्यालंकार ने सन् 1961 से लेकर सन् 1968 के मध्य बाल साहित्य पर उत्कृष्ट कार्य किया। इसके बाद बाल पत्रिकाओं के रूप में प्रकाशित होतीं ‘शिशु’, ‘बालसखा’, ‘बालक’, ‘वानर’, खिलौना’ आदि ने बाल साहित्य को समृद्ध बनाने का कार्य किया। इनके माध्यम से बाल साहित्य की कहानियों, कविताओं एवं अन्य रचनाओं की समीक्षा सम्बन्धी कार्य भी सम्भव हुआ। सन् 1968 में हरिकृष्ण देवसरे द्वारा जबलपुर विश्वविद्यालय से बाल साहित्य पर प्रथम पी-एच0 डी0 उपाधि हासिल करने के बाद कई अन्य ख्यात साहित्यकारों द्वारा हिन्दी बाल साहित्य में शोध कार्य एवं शोध प्रबन्धों को प्रकाश में लाने से लगा कि इस क्षेत्र को शिक्षा सम्बन्धी क्षेत्र में भी स्वीकार्यता प्राप्त हो रही है।
इस तरह के स्वर्णिम दौर के बाद भी एकाएक ऐसा लगने लगा है कि बाल साहित्य समाप्त हो गया है। बच्चों को केन्द्र बिन्दु बना कर प्रकाशित हो रहीं अनेक पत्रिकाएँ काल कलवित हो गयीं। देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में बच्चों के लिए किसी तरह का स्थान अब देखने को नहीं मिलता है (एक-दो पत्र-पत्रिकाओं को अपवाद स्वरूप छोड़कर)। यहाँ अन्य किसी भी चर्चा के यह विचारणीय होना चाहिए कि बाल साहित्य एकाएक मृतप्राय सा क्यों हो गया? वह अपनी समृद्ध विरासत को सँभाल पाने में अक्षम क्यों रहा? क्या अब बाल साहित्य का कोई भविष्य शेष नहीं रह गया है? आधुनिकता में रचे-बसे परिदृश्य में क्या बाल साहित्य अर्थहीन हो गया है? इनके अतिरिक्त और भी ऐसे प्रश्न हैं जो चुनौती के रूप में सामने खड़े हैं। समाधान क्या और कैसे हो इस पर चर्चा के पूर्व यह जानना भी आवश्यक है कि बाल साहित्य को उपयोगी बनाने हेतु क्या किया गया? बच्चों को पुस्तक पाठन हेतु क्या प्रेरित किया गया? प्रतिष्ठित समीक्षक ब्रैसी सैंडर्स का कहना है कि ‘कोई काम इतना कठिन नहीं है जितना बच्चों के लिए लिखना। बच्चों के लिए लिखने के बाद कोई काम इतना कठिन नहीं जितना बच्चों की पुस्तकों के बारे में लिखना।’ देखा जाये तो यह एक वाक्य ही सारी स्थिति को साफ करता दिखता है। बच्चों के अनुकूल लिखना हमेशा से दुःसाध्य रहा है। बच्चे रूप, रंग, गंध, स्वर, रस, स्पर्श, दृश्य आदि से किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। ऐसे में बाल साहित्य के नाम पर कुछ भी लिख देना बाल साहित्य की उपयोगिता को समाप्त करता है। शायद यही कारण रहा है कि साहित्य के दिग्गज साहित्यकारों में शामिल आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डा0 नगेन्द्र जैसे लोगों ने अपने ऐतिहासिकता प्रमाणित करते ग्रन्थों में बाल साहित्य की चर्चा भी नहीं की है।
बाल मनोविज्ञान के अनुरूप लिखने की असाधारण कल्पना-शक्ति के अभाव के अतिरिक्त बाल पाठकों का साहित्य के प्रति रुचि न लेना भी बाल साहित्य के ह्रास का एक प्रमुख कारण समझा जा सकता है। यह स्थिति वर्तमान में बाल साहित्य को क्षति पहुँचा रही है, भविष्य में सम्पूर्ण साहित्य जगत् को क्षतिग्रस्त करेगी क्योंकि आज का बालक ही कल को साहित्य का पाठक बनेगा। इसके बाद भी पूरी तरह हम लोग ही जिम्मेवार हैं जिन्होंने अपने बच्चों में साहित्य पठन-पाठन के प्रति रुचि जाग्रत नहीं की; उनका पठन-पाठन मात्र स्कूली पाठ्यक्रम को पूरा करने तक सीमित कर दिया; बन्दूकों, मशीनगनों जैसे खिलौने और हिंसात्मक वीडियो गेम के शौक का पोषण कर बच्चों को साहित्य से बहुत ही दूर कर दिया।
इसके बाद भी यदि प्रयास किये जायें तो कुछ सम्भावनायें अभी भी शेष दिखतीं हैं। बाल साहित्य के नाम पर पुस्तकों का प्रकाशन मात्र पुस्तकालयों से गणित बैठाने के लिए न हो। बाल साहित्यार्थ एक मंच का निर्माण हो जो बाल साहित्य के प्रकाशन और समीक्षा हेतु कार्य करे। प्रकाशकों को लाभ-हानि के गणित से बाहर आकर बच्चों के भविष्य हेतु बाल साहित्य के प्रकाशन में सक्रिय होना पड़ेगा। साहित्यकारों को भी इस ओर अपनी लेखनी को मोड़ना होगा पर यह विचार कर कि बच्चों के लिए कुछ भी लिख देना ही बाल साहित्य नहीं।
आने वाले कल के लिए साहित्यकारों, पाठकों की एक पौध को हम तभी पैदा कर पायेंगे जब हम इसका उत्तरदायित्व समझेंगे। बाल साहित्य के विकास से ही बाल मन में पैठ बना चुकी इलेक्ट्रानिक संसाधनों की मायावी दुनिया, हिंसा, सेक्स, विकृति को निकाल सकेंगे; बस एक प्रयास हम सबको मिल कर करना होगा।
‘स्पंदन’ की ओर से एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है कितना सफल रहा कितना असफल, यह आप सुधी पाठकों पर......प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा-