सत्य की जीत

कहानी ====== मार्च - जून 06
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सत्य की जीत
उषा सक्सेना
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बुन्देलखण्ड में एक राजा अपने राज्य में तालाब के किनारे हर वर्ष मेला लगवाते थे। उससे जो भी धन आता था उसे प्रजा के कल्याण के लिये खर्च कर देते थे। उनका एक नियम था यदि रात तक किसी दुकानदार का माल नहीं बिकता था तो उसे स्वयं खरीद लेते थे जिससे उसकी हानि न हो। उस मेले में दूर-दूर से लोग आया करते थे और सुंदर-सुंदर वस्तुयें खरीद कर ले जाते थे।
एक बार एक शिल्पकार मेले में आया। वह बहुत ही सुंदर मूर्ति बनाकर लाया था। संगमरमर की बनी हुई यह मूर्ति इतनी सुंदर थी कि दर्शकों का बरबस ही मन उस ओर आकृष्ट हो जाता था। कलाकार ने एक-एक अंग तराश-तराश कर बनाया था। मूर्ति इतनी सजीव लगती थी जैसे अभी ही बोल उठेगी। सभी उसे खरीदने की लालसा से आते, किन्तु मूल्य सुनकर हट जाते। उसका मूल्य था सोने के एक लाख टके। एक तो मूर्ति मंहगी थी दूसरे मूर्तिकार ने उस मूर्ति का नाम रखा था-‘‘दलिद्दर देवता।’’ कुछ लोग नाम से ही भड़क उठते थे। यह समाचार राजा तक पहुँचा कि मेले में एक मूर्ति बहुत सुन्दर आई है, किन्तु उसका कोई ग्राहक नहीं है। मूर्तिकार उदास बैठा है। राजा बहुत ही संवेदनशील था। उसके राज्य से कोई निराश होकर लौट जाए इस बात की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह तुरन्त ही घोड़े पर बैठकर मेले में जा पहुँचा। राजा ने ठीक ही सुना था। मेला उठ चुका था। वहाँ बस वही एक मूर्तिकार न जाने किस आशा में अभी बैठा हुआ था। राजा ने मूर्तिकार से प्रश्न किया।
सुनो क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आए हो ? तुम्हारी मूर्ति में ऐसी कौन-सी विशेषता है जो उसका दाम सोने के एक लाख टके हैं और तुमने अपनी मूर्ति का क्या नाम रखा है ? किसकी मूर्ति है यह ?
मूर्तिकार ने कहा-‘‘महाराज हमें कमंगर कहते हैं। आपका नाम सुनकर ही हम मेले में आये हैं। मेरी मूर्ति देखने में जितनी सुन्दर है उतनी अशुभ भी है। मैंने इसका नाम दलिद्दर देवता रखा है। यदि कोई इसे ले लेगा तो उसका सुख, सम्पत्ति, वैभव यश ऐश्वर्य सभी कुछ नष्ट हो जायेगा।’’
राजा को मूर्तिकार की सभी बातें विचित्र-सी लग रही थीं। उसने मूर्ति का आवरण हटा कर देखा तो दंग रह गया। वास्तव में कलाकार ने बड़ी ही मेहनत से तराश कर मूर्ति गढ़ी थी। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ था। बिल्कुल सजीव सी लगती थी। कलाप्रेमी राजा मूर्ति देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसके शब्द मौन हो गये। थोड़ी देर बाद वह बोला -
मूर्ति बड़ी ही सुंदर है। कितने दिनों की मेहनत है।
महाराज बहुत वर्षों में यह मूर्ति बना पाया हूँ। बड़ा परिश्रम किया है मैंने। इसीलिये इसका मूल्य इतना अधिक रखा है। मैं जानता था आप कला प्रेमी और दयालु हैं। ये मूर्ति आप ही खरीदेंगे, इसी विश्वास के साथ मैं यहाँ आया था।
ठीक है-कोषाध्यक्ष जी इसे मूर्ति का मूल्य दे दीजिये और मूर्ति को राजमहल में पहुँचवा दीजिये। राजा के आदेश का पालन हुआ और मूर्तिकार अत्याधिक प्रसन्न होकर अपने गाँव लौट गया। राजमहल पहुँचते ही मूर्ति ने अपना रंग दिखाना शुरू किया। सबसे पहले तो राजा के दरबारी, सेवक और प्रियजन राज्य छोड़कर चले गये। उसके उपरान्त न्याय ने अपनी राह ली और धर्म पाताल लोक में चला गया। ऐसी स्थिति में लक्ष्मी जी भी घबरा गई। जिस राज्य में न्याय, धर्म, स्नेह, आदर, सत्कार, आस्था, विश्वास सभी कुछ समाप्त हो गया हो वहाँ लक्ष्मी का वास कैसे हो सकता था। लक्ष्मी तो स्वभावतः ही चंचल होती है, उसने राजा से विनम्रता से कहा-
महाराज आपने इस मूर्ति को खरीद कर राज्य में रखा जिसके कारण राज्य में सब कुछ विनष्ट हो गया है। इसे महल से निकाल दीजिये महाराज अन्यथा मैं भी आपके राज्य से चली जाऊँगी।
लक्ष्मी की बात सुनकर महाराज चिन्ता से भर उठे। वे सोचने लगे-‘‘इस मूर्ति के कारण प्रजा मुझसे रूठ गई-न्याय और धर्म ने अपनी राह ली और अब राजलक्ष्मी भी रूठकर जाना चाहती हैं। क्या यह मूर्ति वास्तव में अशुभ है ? मैंने तो अपने धर्म का निर्वाह किया है कि जो वस्तु मेले में बच जाए तो मैं खरीद लूँ जिससे किसी व्यक्ति का हृदय न दुखी हो। क्या करूँ मैं ? राजा बड़ी उलझन में पड़ गया। फिर वह अन्तःपुर में गया यह सोचकर कि महारानी कोई-न-कोई हल अवश्य निकालेंगी क्योंकि वे बड़ी ही समझदार हैं। महाराज को असमय ही महल में आया देखकर रानी व्याकुल हो उठीं। उन्होंने महाराज को इतना उदास कभी नहीं देखा था। उन्होंने पूछा -
‘‘क्या बात है राजन ? आपके मुख पर उदासी के बादल कैसे ? मुझे बताइये शायद मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।’’
राजा ने सारी बातें विस्तार से महारानी को बताई। महारानी स्वयं सती-साध्वी, पतिव्रता स्त्री थीं। उन्होंने कहा -
महाराज आप सत्यनिष्ठ हैं। सत्य पथ पर आजीवन चलते आये हैं। आप एकनिष्ठ होकर उसी पथ पर चलते रहें। लक्ष्मी तो सत्य की दासी के सदृश हैं। वे स्वयं ही आपके पास आ जायेंगी। रानी की बातें सुनकर राजा के मन में आशा की किरण फूटी, किन्तु उसी समय सत्य ने आकर कहा -
हे राजन ! इस राज्य में अब कुछ नहीं बचा। अब तो लक्ष्मी भी चली गईं। मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगा-मैं भी आपसे आज्ञा लेने आया हूँ।’’
सत्य की बात सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ। सत्य के मार्ग पर चलने के लिये ही उन्होंने सब कुछ खो दिया था। वे किसी भी मूल्य पर अपने वचन से नहीं हट सके थे। इसी कारण सबने उन्हें छोड़ दिया था। उन्हें लगा कि जैसे उनके धैर्य का बाँध अब टूट जायेगा। उन्होंने दुखी होकर कहा -
हे सत्य ! तुम्हारे पथ पर चलने के लिये ही मैंने अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह किया जिसके कारण सभी ने मुझे और राज्य को छोड़ दिया। अब तुम भी मुझसे नाता तोड़ना चाहते हो-फिर मैं ही जी कर क्या करूँगा। भविष्य में कोई सत्य के मार्ग को नहीं अपनायेगा यही दुख है।
राजा की बातें सुनकर सत्य का हृदय पसीज गया। सोचने लगा-सत्य के कारण सत्यवादी हरिश्चन्द्र को न जाने कितनी यातनाएँ सहनी पड़ी थीं और अब यह सत्यवादी राजा ? इसने भी मेरे कारण सबको त्याग दिया और मैं ही इसे छोड़कर जाने का मन बना बैठा। यह तो इस राजा के साथ घोर अन्याय होगा। मैं इसे छोड़कर नहीं जाऊँगा। यदि मुझसे न्याय, लक्ष्मी और धर्म को स्नेह होगा तो वे भी राज्य में फिर लौट आयेंगे।
सत्य ने राजा से कहा -
‘‘धन्य हैं राजन ! आपने जो प्रण ठाना उसका मन, वचन, कर्म से निर्वाह किया। आप कभी सदपथ से नहीं डिगे। मैं आपको छोड़कर कभी नहीं जाऊँगा। अन्यथा पृथ्वी पर असत्य का ही बोलबाला हो जायेगा। सत्य की बात जब लक्ष्मी, न्याय और धर्म को ज्ञात हुई तो वे सब भी पश्चाताप से भर उठे और वे राज्य में वापस लौट आये कभी न जाने के लिये। सत्य की विजय हुई और इस प्रकार सत्यवादी राजा के दरबार में एक बार फिर राज्य सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य से भर उठा। राजा प्रजा में और लोकप्रिय हो गया और सब उसे देवता की तरह पूजने लगे।
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