धरोहर / ईसुरी की फागें
नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ------------------------------------------------ धरोहर ईसुरी की फागें ------------------------------------------------ |
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धरोहर / ईसुरी की फागें
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आऔ को अमरौती खाकें, ई दुनियाँ में आकें।
नंगे गैल पकर गये, धर गये, का करतूत कमाकें।
जर गये, बर गये, धुन्ध लकरियन, धर गये लोग जराकें।
बार बार नईं जनमत ‘ईसुर’, कूख आपनी माँकें।। 1
आगये दिन मरबे के नीरे, चलन जात जे जी रे।
अब बा देह अगन नईं रै गई, हाँत पाँव सब सीरे।
डारन लगे रात हैं नइयाँ, पत्र होत जब पीरे।
जितनी फाग बनावें ‘ईसुर’, गावें पण्डा धीरे।। 2
अपनी बोल समारौ बानी, कौन बड़ी जिन्दगानी।
जेई बानी हौदै बैठारै, जेई चढ़ावै पानी।
जेई बानी रथ पै बैठारै, जेई नरक की खानी।
कहत ‘ईसुरी’ सुन लो भई, जेई जगत्तर जानी।। 3
ऐसो होत नहीं यारी में, दगा दोसदारी में।
चंदन काट बमूर लगाये, केसर की क्यारी में।
चन्दा ऊपर गान परत है, देख लेत थारी में।
‘ईसुर’ कहत निबानै परहै, नई उमर बारी में।। 4
कौ है प्रीत निबाबे बारो, सो मैं एक बिचारो।
मित्र को ऐसे मिलबो चइये, ज्यों कुंजी उर तारो।
जैसें क्षीर में नीर मिलादो, होत कभऊँ न न्यारो।
‘ईसुर’ राम भजन बिन जैसें, होत नहीं निस्तारो।। 5
चौपर है राजन के लानें, जिनै जागीरी खानें।
बड़े भोर सें बिछौ गलीचा, ठान ओई की ठानें।
निस दिन तान लगी चौपर की, मरे जात भैरानें।
कात ‘ईसुरी’ जुर कें बैठे, लवरा कैई सयाने।। 6
जबसें छुई रजऊ की बइयाँ, चैन परत है नइँयाँ।
सूरज जोत परत बेंदी पै, भर भर देत तरइयाँ।
कग्ग सगुन भये मगरे पै, छैला सोऊ अबइयाँ।
कहत ‘ईसुरी’ सुनलो प्यारी, ज्यो पिंजरा की टुइयाँ।। 7
जग में जौलों, राम जिवावै, जे बातें बरकावै।
हाथ पाँव दृग दांत बतीसऊ, सदा ओई तन रावै।
रिन ग्रही ना बनै काऊकौ, ना घर बनों मिटावै।
इतनी बातें रहें ‘ईसुरी’, कुलै दाग ना आवै।। 8
जिदना रजऊ पैरतीं गानो, जिअरा होत बिरानो।
बेंदा बीज दावनी दुर को, पान झलरया कानों।
सरमाला लल्लरी बिचौली, मोरैं हरा सुहानो।
पाँवपोस पैजनियाँ पोरा, ‘ईसुरी’ कौन बखानो।। 9
जो कोउ जोग में भोग जमावै, सो गुनबान कहावै।
सुन्न सिखर सें ऊपर जाकें, आसन अचल जमावै।
धरती में ना आसमान में, अमर मड़ैया छावै।
‘ईसुर’ कात कुटुम अपने सें, आवा गमन मिटावै।। 10
नईयाँ रजऊ तुमारी सानी सब दुनियाँ हम छानी।
सिंघल दीप छान लओ घर-घर, ना पदमिनी दिखानी।
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन, खोज लई रजधानी।
रूपवंत जो तिरियाँ जग में, ते भर सकतीं पानी।
बड़ भागी हैं ओई ‘ईसुरी’ तिनकी तुम ठकुरानी।। 11
हो गई रजऊ बिदा की बेरा, रहे दिना दस तेरा।
तुमरे लानैं करत रहत तें, दिन में दस दस फेरा।
नित नये खेल होत ते जाँ पर, लै गई बिपत बसेरा।
‘ईसुर’ अपँय पिया के संगै, हो जैंहों नौ-तेरा।। 12
मधुकर होत न प्रीत पुरानी, उत्तम मन की जानी।
पथरी आग तजत है नईंयाँ रहै जुगन भर पानी।
जैसें फूल गुलाब पखुरिया, सूकैं अधिक बसानी।
‘ईसुर’ कहत प्रीत उत्तम की, निबहत भर जिंदगानी।। 13
नैना इनके जगत उजारे, हमें देखतन मारे।
भस्मी चढ़ा बनाकें बाबा, लाखन दये किनारे।
धर धर कें काजर की कोरें, ठाँड़े मानुस फारे।
मानुस की की चली ‘ईसुरी’ भये पाखान दरारे।। 14