मधुरोपासक भक्तकवि हरिराम व्यास


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख
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डा0 बहादुर सिंह परमार


अपनी आन-बान और शान के लिए विख्यात बुन्देलखण्ड वसुधा में जहाँ एक ओर आल्हा-ऊदल और छत्रसाल जैसे योद्धाओं ने जन्म लिया वहीं दूसरी ओर जगनिक, विष्णुदास, गोरेलाल, ईसुरी और हरिराम व्यास जैसे महान काव्य प्रणेताओं ने इस माटी का नाम सार्थक किया है। मध्यकाल में जब भक्ति की धारा समूचे हिन्दी प्रान्त में प्रवाहित हो रही थी तब बुन्देलखण्ड के भक्तिकुंड में भी अनेक सन्त डुबकी लगाकर काव्य साधना के साथ लोक आदर्श के केन्द्र बिन्दु बने हुए थे। ऐसे ही लोकादर्श व भक्ति शिरोमणि व्यास का जन्म बेत्रवती सरिता के किनारे अवस्थित ओरछा नगरी में शमोखन शुल्क व देविकारानी के घर संवत 1567 की मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष 5 को हुआ था। इस विलक्षण बालक को परिवार से पुराण की परम्परा व माधव सम्प्रदाय की भक्ति भावना विरासत में मिली। हरिराम ने अपने पिता से भरपूर गुणों को ग्रहण कर पुराणवक्ता के रूप में क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि पाई कि उन्हें लोग व्यास जी कहने लगे। यही से हरिराम शुक्ल हरिराम व्यास हो गए। बालक हरिराम कुशाग्र बुद्धि के थे। इनकी प्रतिभा से क्षेत्र में लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। जब हरिराम व्यास लगभग बीस वर्ष की अवस्था के थे तभी बुन्देला राजाओं ने गढ़कुंड़ार के स्थान पर ओरछा को राजधानी बनाने का निर्णय लिया जिससे नगर का चतुर्दिक विकास होने लगा। इधर राजधानी होने से राजदरबार में विद्वान आने लगे। आए दिन व्यासजी के विद्वानों से शास्त्रार्थ होने लगा जिसमें उन्हें विजयश्री सदैव मिलती रही। इसी क्रम में हरिराम व्यास ने काशी पहुँचकर अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ किया। काशी में उन्हें यह अनुभव हुआ कि शास्त्रार्थ और मात्र तर्क से जीवन सफल नहीं किया जा सकता हैं। जीवन में भक्ति के लिय प्रेम, सहजता, भाव प्रवणता तथा मन की एकाग्रता आवश्यक हैं। वहाँ से लौटकर वे ओरछा आये तथा बाद में वृन्दावन गए। उन्होने तीर्थाटन किया। इस दौरान भक्त कवियत्री मीराबाई से भी मिले। वे जीवन में ओरछा व वृन्दावन आते-जाते रहे और उन्होने जीवन के अन्तिम क्षण वृन्दावन में ही बिताए।
मधुरोपासक हरिराम व्यासजी द्वारा हिन्दी में रचित रागमाला, व्यासजू की बानी, रस-सिद्धान्त के पद, व्यासजू की बानी सिद्धान्त की, व्यासजी के रस के पद, व्यासजी के साधारण पद, व्यासजी की पदावली, रास पंचाध्यायी, व्यासजी की साखी तथा व्यास जी की चैरासी नामक दस ग्रन्थ मिलते हैं। इनके ग्रन्थों में भारतीय संगीतशास्त्र, ज्ञान परम्परा, भक्ति साधना तथा जीवन दर्शन के विविध पक्ष गहनता से प्रकट हुए हैं। प्रेम और समर्पण के साथ सख्य भाव भक्ति के विवध रूप तथा अराध्य राधाकृष्ण की छवियाँ प्रमुखता से देखने को मिलती हैं। इनके काव्य में तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम विसंगतियों पर प्रहार भी दृष्टव्य हैं। वे जीवन में जितने सरल, निश्छल और प्रेमी थे उतने ही परम्पराभंजक भी थे। व्यासजी भक्त को भक्त मानते थे वह चाहे किसी भी जाति या वर्ण का हो। जब वर्ण-व्यवस्था के तहत छुआछूत चरम पर थी तब व्यासजी इस भेद को नकारते हैं। इनसे जुडी एक कथा बुन्देलखण्ड में प्रचलित हैं जिसके अनुसार व्यासजी कुलीन और विद्वान भक्त की तुलना में अछूत भक्त का अधिक सम्मान करते थे। इस भावना से समाज के कुछ लोग उनसे चिढते थे तथा कहा करते थे कि ये मात्र दिखावा करते हैं। इस भाव की परीक्षा लेने हेतु उन्होंने योजना बनाई कि व्यासजी को भंगिन के हाथ से जूठा प्रसाद सार्वजनिक रूप से खिलाया जाए। किसी मंदिर से साधु भोजन के उपरान्त एक भंगिन जूठी बची हुई सामग्री ला रही थी। समाज के उन चिढ़ने वाले लोगों ने उस भंगिन से व्यास जी को प्रसाद देने की बात कही। व्यास जी को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई और उन्होंने सहजता से उस भंगिन द्वारा जठून में से दी गई प्रसाद की पकौड़ी को आदरपूर्वक लेकर ग्रहण किया, जिसे देखकर वे चिढ़ने वाले लोग भी दंग रह गए। ऐसे लोगों के आचरण को हरिराम व्यासजी ने उद्घाटित किया है, जो ब्राम्हण कुल में जन्म लेकर दूसरे को ठगने के लिए वेद-पुराणों का सहारा लेते हैं। जिन्हें भक्ति भाव का भान नहीं होता, वे सत्य से दूर मिथ्या को अपनाने वाले होते हैं, जो नरकगामी होते हैं। व्यासजी लिखते हैं -
‘बाम्हन के मन भक्ति न आवै।
भूलै आप, सबनि समुझावै।।
औरनि ठगि-ठगि अपुन ठगावै।
आपुन सोवै, सबनि जगावै।।
वेद-पुरान बेंचि धन ल्यावै।
सत्या तजि हत्याहिं मिलावै।।
हरि-हरिदास न देख्यौ भावै।
भूत-पितर, देवता पुजावै।
अपुन नरक परि कुलहिं बुलावै।।’
(हरिराम व्यास, सं0 वासुदेव गोस्वामी पृ0 90)
उन्हें साधुओं की सेवा करने में बड़ी रुचि थी। एक बार संतों की एक मंडली व्यासजी की अतिथि हुई। जब सब प्रकार से आग्रह करने पर भी वह मंडली एक दिन और रुकने के लिए राजी नहीं हुई तो व्यासजी ने उनके ठाकुर जी उठा लिए और उनके स्थान पर चुपचाप एक पक्षी बन्द कर दिया। साधु जब चलने लगे तो व्यासजी ने उनसे कहा कि आप लोग हमारी अनुमति के बिना जा रहे हैं। देखिये आपके ठाकुर जी आपको पुनः यहाँ लौटा लायेंगे। इस कथन पर बिना ध्यान दिये साधुमंडली वहाँ से चली। तीन मील चल कर सरिता में साधुओं ने स्नान करने के उपरान्त ज्यों ही अपने ठाकुरजी की सेवा करने के लिए संपुट खोला तो उसमें से एक पक्षी निकल कर वृन्दावन की ओर को उड़ गया। साधुओं को व्यास जी की यह याद आई जो उन्होंने चलते समय कहीं थी। वे पुनः वापस आये। व्यास जी प्रसन्न हुए। उनके ठाकुर देकर उन्होंने उस मंडली का पूर्ववत् आदर सत्कार करना प्रारम्भ किया। जब भक्तों के प्रति व्यासजी की आदर भावना और निष्ठा की चर्चा चारों ओर हुई तो उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक महन्त उनके पास आये और अपने को बहुत भूखा बताते हुए भोजन माँगने लगे। उस समय व्यास जी के आराध्य देव युगल किशोर जी को भोग नहीं लगा था। अतः व्यासजी ने उन महन्तजी को थोड़ा देर ठहरने के लिए कहा इस पर महन्त जी उन्हें गालियां देने लगे। व्यासजी ने विनम्र भाव से यह दोहा पढ़ा।
‘व्यास’ बड़ाई और की, मेरे मन धिक्कार।
संतन की गारी भली, यह मेरी श्रृंगार।।’
इसे सुनकर महन्तजी को चुप हो जाना पड़ा। थोड़ी ही देर में ठाकुरजी को भोग लग जाने पर एक पत्तल परोस कर व्यासजी उन महन्त जी के लिए ले गये। उसमें से थोड़ा सा ही खा कर महन्त जी ने पेट के दर्द का बहाना करते हुए वह प्रसाद जूठा कर वहीं छोड़ दिया। व्यासजी ने उस उच्छिष्ट प्रसाद को मस्तक से लगाया और खाने लगे। सन्त-सेवा और प्रसाद के प्रति इतनी श्रद्धा देखकर परीक्षक महन्त गद्गद हो गये और उनके नेत्रों में आँसू भर आये।
व्यासजी पूर्ण समर्पण भाव से राधा कृष्ण की भक्ति करते थे। इनके सम्बन्ध में लोक में अनेक किंवदंतियों लोकमुख में जीवित हैं। व्यासजी के जीवन की सबसे प्रसिद्ध घटना है उनके जनेऊ तोड़कर नूपुर बांधने की। एक समय रास में नृत्य करती हुई राधिका जी के चरण के नूपुर की डोरी टूट गई। रास लीला में विक्षेप पड़ने लगा। उपस्थित रसिक जन एक दूसरे का मुँह ताकने लगे परन्तु उपाय सूझा तो व्यासजी को। उन्होंने चट से अपना यज्ञोपवीत तोड़कर नूपुर बाँध दिया। यह देखकर उपस्थित लोगों ने व्यासजी से ताना देते हुए कहा कि ब्राह्मण होकर तुमने जनेऊ ही तोड़ डाला? व्यासजी ने उन्हें यह उत्तर दिया कि मेरे यज्ञोपवीत का लक्ष्य ही श्रीराधिका के चरणों की प्राप्ति करना ही तो था।
एक दूसरी घटना यह कही जाती है कि किसी ने श्री ठाकुरजी की सेवा के लिए एक जरकसी पगड़ी चढ़ाई। व्यासजी ने उस पगड़ी को धारण करने का असफल प्रयत्न किया, क्योंकि उसके बांधन में वह पगड़ी ठाकुरजी के मस्तक से बार-बार खिसक पड़ती है। अन्त में परेशान होकर व्यासजी ने यह कहकर उसे वहीं छोड़ दी कि मेरी बँधी पसन्द नहीं आती तो स्वयं बाँध लो। थोड़ी देर के उपरान्त जब वे मन्दिर के भीतर गये तब उन्होंने अपने इष्टदेव को पगड़ी बाँधे हुए पाया।
इसी तरह हरिराम व्यास जी के सम्बन्ध में ओरछा के आसपास यह दंतकथा और प्रचलित है कि शरद-ऋतु की ज्योत्सना से मुक्त एक रात बेतवा नदी के किनारे अपने आराध्य श्री ठाकुरजी की मूर्ति के समक्ष अपने प्रिय शिष्य महाराज मधुकर शाह के साथ रास रचाई। इस रास में प्रेमभाव से बेसुध होकर व्यासजी नृत्य करते रहे और उनके साथ महाराज मधुकर शाह ने भी नूपुर बांधकर नृत्य किया। प्रेमभाव से युक्त नृत्य देखकर देवगण प्रसन्न हो गये थे और आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी थी। कहा जाता है कि आकाश से धरती पर गिरा प्रत्येक पुष्प सोने का हो गया था। इसीलिए इस बेतवा घाट का नाम ‘कंचनाघाट’ पड़ा।
व्यासजी राधाकृष्ण ने अनन्य भक्त थे। कहते हैं कि उन्होंने राधाकृष्ण के अतिरिक्त किसी की पूजा नहीं है। यहां तक कि अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर भी गणेश पूजन करने से इंकार कर दिया था। जिसके कारण परिजनों व समाज का विरोध उन्हें झेलना पड़ा था। व्यास जी ने अपने जीवन में एकनिष्ठ भक्ति भाव के मर्म को पहचान कर उपासना की विविध जड़ीभूत सच्चाइयों को अस्वीकार कर प्रेम के मूल्यों को नये ढंग से परिभाषित किया।
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